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________________ भगवतीसूत्रे घाएणं छदिसि वाघायं पड्डुच्च सिय तिदिसि सिय चउदिसि सिय पंचदिसिं' निर्व्याघातेन पहदिशं व्याघातं प्रतीत्य स्यात् त्रिदिश, स्याच्चतुर्दिशं, स्यात्पंचदिशम् , यदि कश्चित्मतिबन्धको न भवेत्तदा षट्स्वपि दिक्षु प्रामातिपातक्रिया भवति, प्रतिबन्धके तु स्यात् तिसृषु दिक्षु स्याच्चतसृषु दिक्षु स्यात् पंचसु दिक्षु, इति पठितव्यम् १। 'जहा पाणाइवाए तहा मुसावाए तहा अदिनादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले' यथा पाणातिपातस्तथा मृषावादः२, तथाऽदतादानं ३, मैथुनं ४, परिग्रहः ५, क्रोधः६, यावत् मिथ्यादर्शनशल्यम् १८ । चाहिये और एकेन्द्रिय जीवों का कथन सामान्य जीवों की तरह जानना चाहिये । अर्थात् क्रिया के विषय में जैसा पहिले वर्णन नारक जीवों का किया गया है वैसा ही वर्णन एकेन्द्रिय जीवोंको छोड़कर वैमानिकपर्यन्त समस्त जीवों का वर्णन क्रिया के विषय में जानना चाहिये । सूत्र में जो " यावत् " शब्द का पाठ आया है उससे दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यच, मनुष्य, भवनपति, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क इन सब का ग्रहण किया गया है। एकेन्द्रिय जीवों के विषय में दिक्पद में "प्रतिबंधक न हों तो छहों दिशाओं में और प्रतिबंधक हो तो कभी तीन दिशाओं में कभी चार दिशाओं में, कभी पांच दिशाओं में प्राणातिपात क्रिया होती है १। (जहा पाणाइवाए मुसावाए तहा अदिUणादाणे,मेहुणे,परिग्गहे, कोहे जाव-भिच्छादसणसल्ले,एवं एए अट्ठारस, चउवीसंदंडगा भाणियव्वा) प्राणातिपात क्रियाके वर्णनकी तरह मृषावाद२, अदत्तादान३, मैथुन४, परिग्रह , क्रोध६, यावत् मिथ्या दर्शनशल्य १८, तक वर्णन जानना चाहिये । इस प्रकार इन अट्ठारह पाप स्थानों में પહેલા કરવામાં આવ્યું છે તેવું જ વર્ણન એકેન્દ્રિય જી ને છોડીને વૈમાનિક सुधाना समस्त जवानुं समन्. सूत्रमा २ “ यावत् ” ५४ छ तेथीन्द्रिय श्रीन्द्रिय, सतुरिन्द्रिय, पाथेन्द्रिय तिय य, मनुष्य, भवनपति, वाव्यत२, ज्योति. ક, અને વૈમાનિક એ બધાને ગ્રહણ કરવા જોઈએ. એકેન્દ્રિય જીના વિષ. યમાં દિશાદમાં “પ્રતિબંધ, અવરોધ, રૂકાવટ) ન હોય તો એ દિશાઓમાં અને પ્રતિબંધ હોય તો ક્યારેક ત્રણ દિશાઓમાં, ક્યારેક ચાર દિશાઓમાં અને ४या२४ पांय हिशयामा प्रातिपात या थाय छ.१ " जहा पाणाइवाए तहा मुसोवाए, अदिण्णादाणे, मेहुणे, परिग्गहे, कोहे जाव-मिच्छादसणसल्ले, एवं एए अदारस. चवीसंदंडगा भाणियत्रा' प्रातिपात यानी वन प्रमाणे भृषावा६२, અદત્તાદાન૩, મિથુન૪, પરિગ્રહપ, અને કેપથી લઈને મિથ્યાદર્શનશલ્ય ૧૮ સુધીનું વર્ણન સમજવું. આ રીતે તે ૧૮ પાપસ્થાને ઉપર ૨૪ દંડક કહેવા જોઈએ. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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