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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ उ०१ सू० ७ स्कन्दकखरितनिरूपणम् ५०५ वा हीयते वा एतावत्तावदाख्याहि उच्यमाने एवम् । ततः खलु स स्कन्दकः कात्यायन गोत्र : पिंगलकेन निर्ग्रन्थेन वैशालिकथावकेण द्विरपि त्रिरपि इममाक्षेपं पृष्टः सन् शंकितः कांक्षितो विचिकित्सितो भेदसमापन्नः कलुषसमापन्नो न शक्नोति पिंगलकस्य निर्ग्रन्थस्य वैशालिक श्रावकस्य किंचिदपि प्रमोक्षम् आख्यातुं तुष्णीकः संतिष्ठते ॥ सू० ७ ॥ ' टीका' तेणं कालेणं तेणं समरणं तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान् महावीरः, ' रायगिहाओ नयराओ ' राजगृहात् सहित है कि विना अन्तका है यावत् जीव किस मरण से मर कर अपने को बढाता है या घटता है ( एवं बुच्चमाणे एतावं ताव आयक्खाहि) इस प्रकार से मेरे द्वारा पूछे गये तुम मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दो । तरणं से कच्चायणस्स गोते खंदए वेसालियसावरणं पिंगलेणं नियंठेणं दोच्चपि तच्चपि इणमक्खेवं पुच्छिए संकिए, कंखिए वितिगिच्छए, भेदसमा बन्ने कलुससमावन्ने, णो वेसालियसावयस्व पिंगलस्स णियंत्रस्स fifafa पामोक्खं अक्वाड णो संचाएe तुसणीए संचिट्ठह ) इस प्रकार कात्यायन गोत्री वह स्कन्दक वैशालिक पिंगलक निर्गन्ध के द्वारा दो बार भी तीन बार भी पूछे जाने पर उत्तर देने के लिये समर्थ नहीं हो सका परन्तु शंकित कांक्षित विचिकित्सायुक्त ही बना रहा और भेद को समापन्न होता हुआ कलुषभाव को प्राप्त हो गया । तथा चुपचाप ही रहा । टीकार्थ - ( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल और उस समय में (समणे भगवं महावीरे) श्रमण भगवान महावीर ( रायगिहाओ नय હું માગધ ! લેક અન્ત સહિત છે કે અંતરહિત છે. ત્યાંથી શરૂ કરીને કયા મરણથી મરીને જીવ સંસાર વધારે છે અને કયા મરણથી મરીને સ‘સાર घटाउछे, त्यां सुधीना प्रश्नो पूछया ( एवं वुच्चमाणे एताव ताव आयक्लाहि ) हे ४न् ! भाग मा प्रश्नीना तभे उत्तर आये. ( तएण से कच्चायणम्स गोत्ते खंदए वेसालियस वएण पिंगलेण नियंठेण दोच्चपि तच्चपि इणमक्खेवं पुच्छिए माणे संकिए, कंखिए वितिगिच्छिए, भेदसमावन्ने, णो वेसालियसावयस्स पिंगलस्स णिय ठस्स किंचि वि पामोक्खं अक्खाइउ णो संचाइ तुसणीए संचिदृइ ) આ રીતે વૈશાલિક શ્રાવક નિગ્રંથ વડે એ વાર અને ત્રણ વાર પૂછત્રા છતાં પણ કાત્યાયન ગેાત્રીય સ્કંદક તેમના પ્રશ્નોના ઉત્તર આપી શકી નહી. પણ શકિત, કાંક્ષિત, વિચિકિત્સાયુક્ત જ ખની ગયાં, અને ભેસમાપન્ન થઈને કલુષભાવ યુક્ત થયા. તથા ચુપચાપજ બેસી રહ્યા. (टी.र्थ - - तेण कालेन तेण समएण ) ते आणे अने ते समये समणे भगवं महावीरे ) श्रभथु भगवान महावीर ( रायगिहाआ नयराओ ) शनगृह भ ६४ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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