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________________ ४९४ भगवतीसूत्रे व्यवच्छेदेन विनाशितं चतुर्गतिगमनवेद्यं कर्म येन स व्यवच्छिन्नसंसारवेदनीय इति, 'निट्टिय?' निष्ठितार्थः संपादितप्रयोजनः 'निहियट्टकरणिज्जे' निष्ठितार्थकरणीयः, निष्ठितः सम्पन्नः अर्थः प्रयोजनं यत्र सः, एतादृशः करणीय कर्तव्यो यस्य स तथा कृतकृत्य इत्यर्थः, एतादृशः स मृतादी अनगारः 'णो पुणरवि ' नो पुनरपि ' इत्थत्थं ' अत्रस्थं-भवंतियङ्नरामरनारकरूपचतुगतिभ्रमणलक्षणं संसारं ' हव्वं ' इति वाक्यालङ्कारे 'आगच्छइ ' आगच्छति, न संसारे समायातीत्यर्थः, हे भदन्त ! येन संसारस्य निरोधः कृतः संसारप्रपञ्चोपि दूरीकृतः तथा व्यवच्छिन्नसंसारादिविशेषणयुतः संपादितप्रयोजनादिः मुनिः स किं पुनः पुन ने संसारचक्रमागच्छतीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'मडाई णं नियंठे' मृतादी खलु निर्ग्रन्थः, 'जाव नो पुणरवि ' यावत् नो पुनरपि ' इत्थत्थं ' अत्रस्थं-तिर्यनरामरनारकगतिगमनलक्षणं संसारम् ' हवं आगच्छइ ' हव्यं आगच्छति, न पुनः संसारमागच्छतीत्यर्थः संसार वेदनीयकर्म जिसका व्यवच्छिन्न हो गया है, अर्थात् अनुबंध के व्यवच्छेद से जिसने चतुर्गतिगमन वेद्य कर्म नष्ट कर दिया है (निट्ठियढे) जिसने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है (निट्टियठुकरणिज्जे) तथा-जिसका कार्य पूर्ण हुए कार्य की तरह पूर्ण समाप्त हो चुका हैअर्थात् जो कृतकृत्य हो चुका है ऐसा वह मुनादी अनगार ( इत्थत्थं ) अवस्थभव को-अर्थात् चतुर्गतिभ्रमण रूप संसार को क्या (णो पुणरवि आगच्छइ ) फिर से नहीं प्राप्त करता है ? अर्थात् ऐसा श्रमण अनगार फिर से संसारमें जन्ममरण नहीं करता है क्या ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु गौतम से कहते हैं-( गोयमा ) हे गौतम! (मडाई णं नियंठे ) मृतादी निर्ग्रन्थ (जाव नो पुणरवि इत्थत्थं हव्वं आगच्छइ) यावत् फिर के वह चतुर्गति भ्रमणरूप संसार में नहीं आता है। अर्थात् सिद्ध हो નાશ થઈ ગયું છે એટલે કે અનુબંધના છેદનને લીધે જેણે ચારગતિરૂપ સંસા२भा अभय ४२वना२ वेध भनि नाशरी नाय छ, (निट्रियट्रे) 20 पातानु य सिद्ध 30 साधु छे, (निट्ठियदृकरणिज्जे) तथा २ कृतकृत्य २६ भयेन छ म त भृताही मरा॥२ ( इत्थत्थं) यतुगत भ्रमण३५ ससारने शु. (णो पुणरवि आगच्छइ) शथी प्रात ४२। नथी? मेटले है वो श्रम નિથ શ સંસારમાં ફરીથી જન્મ મરણ પામતે નથી; તેને ઉત્તર પ્રભુ આ प्रमाण मापे छ “गोयमा!" गौतम ! "मडाई णं नियंठे" मेवो भृताही निथ (जाव नो पुणरवि इत्थत्थं हव्व आगच्छइ) Nथी या या२ गतिमा ससाરમાં જન્મ લેતું નથી. એટલે કે તે સિદ્ધપદ પામે છે. તે શ્રમણ નિર્ચથને શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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