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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श० २ उ० १ सू० ५ प्राणभूतादिस्वरूपनिरूपणम् ४८५ यस्मात् वेदयति च सुखदुःखं तस्मात् वेदयिता इति वक्तव्यं स्यात् तत्तेनार्थेन माण इति वक्तव्यं स्यात् , यावत् वेदयिता इति वक्तव्यं स्यादिति ।। सू० ५ ॥ टीका--'से णं भंते' तत् खलु भदन्त ! 'किंति वक्तव्यं सिया' किमिति वक्तव्यं स्यात् , तत्र स निर्ग्रन्थो जीवः किमिति वक्तव्यं स्यात् ? भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि । ‘गोयमा' हे गौतम ! 'पाणेति वत्तव्यं सिया' प्राण इति वक्तव्यं स्यात्, तत्र यदा उच्छ्वासादिमत्त्वस्य विवक्षा क्रियते तदा निर्ग्रन्थजीवं प्रति माण इत्येवंरूपो व्यपदेशः कर्तुं शक्यते एव, प्राणनक्रियादिमत्त्वेन प्राणेत्यन्वर्थनामसंभवात् । 'भूएत्ति वत्तव्वं सिया' भूत इति वक्तव्यं रसे जाणइ, तम्हा विष्णुत्ति वत्तव्वं सिया) जिस कारण यह तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल, मधुर रसों को जानता है इस कारण ( विज्ञ) इस शब्द द्वारा यह कहा जा सकता है। ( जम्हा वेदनीय सुहदुक्खं तम्हा वेदेत्ति वत्तव्वं सिया) जिस कारण सुख दुःख का वेदन करता है इस कारण यह ( वेद ) इस शब्द से कहा जा सकता है। टीकार्थ-( से णं भंते ! ) हे भदन्त ! वह मुनि जीव (किं ति वत्तव्वं सिया ) (किमिति ) किस शब्द से कहा जा सकता है ? भगवान इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि-( गोयमा ) हे गौतम ! वह (पाणेत्ति वत्तव्वं सिया ) प्राण इस रूप से कहा जा सकता है। जिस समय उच्छ्वास आदि से युक्तता की विवक्षा की जाती है तब उस समय-निग्रन्थ जीव के प्रति (प्राण ) इस रूप से व्यपदेश किया जा सकता है । क्यो कि प्राणन क्रिया आदि वाला वह है-इससे (प्राण) ऐसा अन्वर्थ नाम उसका हो जाता है । (भूए त्ति वत्तव्वं सिया) जिस जाणइ, तम्हा विष्णू त्ति वत्तव्य सिया) २ ४४२0 तो, ४४३, तुरी ખાટે, અને મીઠે રસ જાણે છે તે કારણે તેને “વિજ્ઞ” કહેવામાં આવે છે. (जम्हा वेदनीय सुहदुक्खं तम्हा वेदे त्ति वत्तव्वं सिया ) ? २णे सुगम वहन ४२ छ. ते १२ तेने "व" उवामां मावे छे. टीथ-"से णं भंते !" मगवन् ! ते भुनिने (किं त्ति वत्तव्वं सिया) ક્યા શબ્દથી ઓળખાવી શકાય છે. “गोयमा !” हे गौतम! " पाणेत्ति वत्तव्वं सिया” तेने "प्रा" કહી શકાય છે. જ્યારે શ્વાસોચ્છવાસ વગેરે યુક્ત પર્ણની વાત કહેવામાં આવતી હોય ત્યારે નિર્ચથજીવને માટે “પ્રાણ” શબ્દનો પ્રયોગ કરી શકાય છે કારણ કે તે પ્રાણનક્રિયા વગેરે યુક્ત હેવાને કારણે “પ્રાણ” નામ તેને માટે અર્થयुद्धत ४य छे. “भूएत्ति वत्तव्यं सिया" तेने "भूत" ५५ ही अय શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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