SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 494
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८० भगवतीसूत्रे अप्रक्षीणसंसारवेदकर्मा इत्यर्थः, अयं च सकृत् चतुर्गतिगमनतोपि स्यादित्यत आह–'नो वोच्छिन्नसंसारे' नो व्यवच्छिन्नसंसारः, अत्रुटितचतुर्गतिगमनानुबन्ध इत्यर्थः, अत एव 'नो वोच्छिन्नसंसारवेयणिज्जे ' नो व्युच्छिन्नसंसारवेदनीयः व्यवच्छिन्नं व्यपगतम् अनुवन्धव्यवच्छेदेन चतुर्गतिगमनवेद्यकर्म यस्य स तथा, यो न तथा स नो व्युच्छिन्नसंसारवेदनीयः, अतएव 'नो निहियट्टे' नो निष्ठितार्थः निष्ठितः निष्पादितः अर्थः मोक्षरूपं प्रयोजनं येन स निष्ठितार्थः यो न तथा स अनिष्ठिनप्रयोजनक इत्यर्थः, अतएव-'नो निट्ठयटकरणिज्जे' नो निष्ठितार्थकरणीयः नो नैव निष्ठितार्थानां संपादितप्रयोजनानामिव करणीयानि कृत्यानि यस्य स नो निष्ठितार्थकरणीयः, यस्मादयमेवंविधोऽत एव 'पुणरवि' पुनरपि, 'इत्थत्थं' अत्रस्थम्-अत्र-संसारे तिष्ठतीति अत्रस्थं भवं तियनरामरनाद्रव्यलिङ्गी ही है भावलिङ्गी नहीं है। इसी कारण (नो पहीणसंसारवेयणिज्जे) जिसका संसार वेदनीय कर्म प्रहीण नहीं हुआ है। ऐसा संसार वेद्यकर्मा साधु एक २ बार चारों गति में जाने से भी हो सकता है अतः इसकी निवृत्ति के लिये ( नो वोच्छि. नसंसारे) ऐसा पद दिया है इससे यह प्रकट किया गया है कि चारों गतियों में अनेक बार परिभ्रमण जिसे करना अभी अवशिष्ट है-बंध नहीं हुआ है। इसी कारण (नो वोच्छिन्नसंसारवेयणिज्जे) जिसका चारों गतियों में अनेक बार भ्रमण कराने में कारणभूत कर्म अभी टूटा नहीं है इसी कारण (नो निहियठे) मोक्षरूप प्रयोजन जिसका अभीतक पूरा नहीं हो पाया है, और इसी लिये ( नो निट्टियट्टकरणिज्जे ) जो ( नो निष्ठितार्थ करणीय) बना हुआ है अर्थात्-जिसके कार्य पूर्ण हुए कार्यों की तरह पूरे नहीं हुए हैं ऐसा वह मृतादी निर्ग्रन्थ अनगार इस तरह की परिस्थिति वाला बना हुआ है तो क्या ( पुणरवि) फिर से वह इस अनादि संसार में ( इत्थत्थं) नारकादि गतिरूप भव को प्राप्त करता लिजा नथी मेने २ ४थन सा ५छ. मेरी ॥२२ नो पहीणसंसारवेयणिज्जे" रेनो ससा२ वहनीय भक्षी नथी से श्रम नियने ઉપરનું કથન લાગુ પડે છે, સંસાર વિધર્મી વાળે સાધુ ગતિમાં એક એક पा२ ५५ ॥ शत! डाय छ त। तेनु नि२।४२६१ ४२वा माटे “नो वोज्छिन्न संसारे ” विषेशण भूयु छ. मेटले ने यारे गतिमा भने पा२ परिश्र भय ४२वानु माली छ. मन ते १२ नो वोच्चिन्नसंसारवेयणिज्जे" જેના ચારે ગતિમાં ભ્રમણ કરાવનાર કર્મોનો હજી ક્ષય થયે નથી, અને २४ २२ 'नो निद्वियढे "भाक्ष३५ प्रयान ७ सुधी ५ ४ शयुनथी, मने तेथी, २ "नो निद्रिय करणिज्जे" रिछत सय नी मोक्षनी प्राप्ति કરી શકે નથી એટલે કે જે કૃતાર્થ થયો નથી, એવા મૃતાદી નિગ્રંથ અણુ॥२ . " पुणरवि" ५२ ३रीन । मन संसारमा 'इत्थत्थं” न२४ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy