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________________ भगवतीसूत्रे रूपं प्रतिकूलवेदनीयमित्यर्थः, अकरिष्यमाणं दुःखं भवतीति भावः । अथवा दुःखं दुखकारणं कर्म, ' अफुसं दुक्खम् ' अस्पृश्यं दुःखम् , तथा यत एवाकृत्यमत एवा. स्पृश्यम् अबन्धनीयम् ‘अकज्जमाणकडं' अक्रियमाणकृतम् , तथा क्रियमाणं वर्तमानकाले, कृतं चातीतकाले, तभिषेधात् अक्रियमाणकृतम् , 'दुक्खं ' दुःख भवति । अकअक' अकृत्वा अकृत्वा, कालत्रयेऽपि कर्मणो बन्धनिषेधात् अकृत्वाऽकृत्वा अकरणादेवेत्या , दुःखम् कर्म ‘पाणभूयजीवसत्ता' प्राणभूत. जीवसत्त्वाः, 'वेयणं वेदेति' वेदनां वेदयन्ति, दुःखमनुभवन्ति, 'इति वत्तव्वं नीय दुःख है वह अनागत काल की अपेक्षा से जीवों द्वारा अनिर्वर्तनीय अनिष्पाद्य-नहीं उपजे ऐसा होता है। कोई भी जीव ऐसा नहीं चाहता है कि मुझे दुःख उपजे-परन्तु वह तो उपजता ही है-अतः वह दुःख स्वभावतः है और इसी कारण वह अकृत्य है । अथवा दुःख से यहां दुःख का कारण जो कर्म है वह दुःख है ऐसा समझना चाहिये । (अफुसं दुक्खं ) दुःख अस्पृश्य है । अर्थात् जब दुःख अकृत्य है इसीलिये वह अस्पृश्य अवन्धनीय-नहीं बंधे ऐसा है। (अकज्जमाणकडं ) वर्तमान काल में जो किया जा रहा है वह क्रियमाण है तथा भूतकाल में जो किया जा चुका है वह कृत है। (दुःख न क्रियमाण है और न कृत है अतः वह अक्रियमाणकृत है। तीनकाल में भी जीव के कर्म का बंध नहीं होता है। अतः दुःख को-कर्म को-नहीं करके भी (पाणभूयजीवसत्ता) प्राण, भूत, जीव, सत्व ये सब (वेयणं वेदेति) वेदना को भोगते रहते हैं । यह सब कथन स्वभाववादियों का है-वे ऐसा कहते हैं कि जो भी सुख दुःखादिक प्राणभूतादिकों द्वारा भोगने में आते रहते हैं वे કરવું. કેઈ પણ જીવ એવું ઈચ્છતું નથી કે મને દુઃખ ઉપજે. પરન્ત તેને દુઃખ તે ઉપજે છે જ. તેથી તે દુઃખ સ્વભાવથી જ ઉપજે છે, અને તે કારણે જ તે અકર્યો છે. અથવા–અહીં “દુઃખ” પદ વડે દુઃખના કારણે રૂપ "म" ने हुम सभा . “ अफुसं दुक्खं" हु:५ श्य ७. सटसे ५ सत्य वाथी २०२५२५-२५५ धनी छ. “अकज्जमाण कड" पत मानमरे ४२वामा भावी २युं छे ते ठियमा छे तथा भूत. કાળમાં જે કરવામાં આવી ગયું છે તે કૃત છે. “દુઃખ ક્રિયમાણ પણ નથી, અને કૃત પણ નથી. તેથી તે અક્રિયમાણ કૃત છે ” ત્રણે કાળમાં જીવને કર્મ नो ५५ मध। ५। नथी. तेथी में नही ४२१॥ छत ५५ “पाण भूय जीव सत्ता" प्राण, भूत, ७१ मने सत्त्व " वेयणं वेदेति” वहन मागवता રહે છે. આ જાતનું તમામ કથન સ્વભાવવાદીઓનું છે. તેઓ એવું કહે છે કે જે સુખ દુખ વગેરે પ્રાણ, ભૂત, વગેરેને ભોગવવા પડે છે તે તેમનાં કર્મોના શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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