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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१उ० ९ सू०८ परिवर्तनस्वरूपनिरूपणम् ३५७
टीका-'से गुणं भंते' तद् नूनं भदन्त ! 'अथिरे पलोट्टइ' अस्थिरः प्रलोटयति, अस्थिरः स्थिरतारहितः यः सर्वदा न तिष्ठति स अस्थिर इति कथ्यते, अस्थिरः लोष्टादिपदार्थः प्रलोटयति परिवर्तते पूर्वावस्थां परित्यज्यावस्थान्तरं प्राप्नोतीत्यर्थः, इहाध्यात्मविचारे अस्थिर कर्म, तस्य कर्मणः जीवप्रदे. शेभ्यः प्रतिसमयं चलनेनास्थिरत्वात् प्रलोटयति = बंधोदयनिर्जरणादिपरिणामः परिवर्तने । 'नो थिरे पलोहइ' नो स्थिरः प्रलोटयति, स्थिर पदार्थस्य स्वरूप परिसेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ ) जैसा आप कहते हैं वह इसी तरह से है हे भदन्त ! इसी तरह से है । ऐसा कहकर यावत् वे गौतम अपने उचित स्थान पर आकर बैठ गये। ____टीकार्थ-(से गूणं भंते ! हे भदन्त ! जो ( अथिरे ) स्थिरता से रहित होता है-अर्थात् जो सर्वदा एकसी स्थिति में नहीं रहता है वह अस्थिर कहलाता है ऐसा अस्थिर लोष्ट (मिट्टी का ढेला ) आदि पदार्थ ( पलोहइ ) बदलता है-पूर्वावस्था का त्याग कर अवस्थान्तर को प्राप्त करता है क्या ? यहां आत्मा के विचार में अस्थिर पदार्थ कर्म है। उस कर्म का जीवप्रदेशों से प्रतिसमय जो चलना-विछुडना होता है वही उसकी अस्थिरता है। इसी कारण वह बदलता रहता है ऐसा कहा है तात्पर्य यह है कि वह बंध, उदय निर्जरण आदि परिणामों से अक्रान्त होता रहता है यही उसका बदलना है । (नो थिरे पलोदृइ ) जो पदार्थ स्थिर होता है उसके स्वरूप का परिवर्तन नहीं होता है । जैसे शिला पाणु A q छ. ( सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ ) 3 मावन् ! આપના કહેવા પ્રમાણે જ બધુંય છે. હે ભગવન! એ પ્રમાણે જ છે. એવું
हीने ( यावत् ) गौतभस्वामी पाताने स्थाने गया. __ -“से पूर्ण भंते" है लान् ! २ "अथिरे" मथि२ डाय छे मेटले કે જે પદાર્થ હંમેશા એકસરખી સ્થિતિમાં રહેતું નથી તે પદાર્થને અસ્થિર
3 छ. मेवा खोष्ट ( भाटीनु ) पोरे पहा " पलोडइ ” शु माता પરિવર્તન પામતાં રહે છે? પહેલાંની અવસ્થાને છોડીને બીજી અવસ્થાને પામતાં રહે છે? અહીં આત્માની અપેક્ષાએ અસ્થિર પદાર્થ કર્મ છે. તે કર્મો પ્રત્યેક સમયે જીવ પ્રદેશમાંથી જૂદાં પડતાં રહે છે. એને જ કર્મની અસ્થિરતા કહે છે. એટલા માટે જ કર્મ બદલતું રહે છે એવું કહ્યું છે. તાત્પર્ય એ છે કે ક, બધ, ઉદય, નિર્જરા વગેરે પરિણામોથી અકાન્ત થતું રહે છે, તેને જ भर्नु परिवर्तन ४७ छ. “ नो थिरे पलोडइ " EिAR पहा । २१३५मा परि.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨