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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० उ०९ सू० ७ आधाकर्मस्वरूपनिरूपणम् ३५३ अनुकम्पते यावत्पदेन-अप्तेजोवायुवनस्पतीनां ग्रहणं कर्तव्यम् । 'जेसिपि य णं जीवाणं सरीराइं आहारइ ' येषामपि च खलु जीवानां शरीराणि आहरति 'तेवि जीवे अवकंखइ ' तानपि जीवानवकांक्षति, तेषु जीवेष्वपि दयाबुद्धिं करोतीत्यर्थः । ' से तेण?णं जाव बीइवयइ ' तत्तेनार्थेन यावत् व्यतिव्रजति, एतेन कारणेनोच्यते हे गौतम ! मासुकैषणीयमाहारादिकं सुझानः श्रमणो निर्ग्रन्थः आयुष्कर्मवर्जिताः सप्त कर्मप्रकृती नौवध्नाति न प्रकरोति न चिनोति नवोपचिनोति दृढतरबद्धा अपि कर्मप्रकृतीः शिथिलयति यावत् संसारकान्तारं व्यतिक्रामति उल्लं. घयति चेतिभावः ॥ सू० ७ ॥ की अपेक्षा करता है-उनपर अनुकंपा रखता है । (जाव तसकार्य अवकखइ) यावत् वह उसकाय की अनुकंपा रखता है। यहां यावत् पद से ( अपकाय, तेजाकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय का ग्रहण किया गया है। (जेसि पि य णं जीवाणं सरीराइं आहाराई ) अपि च-वह श्रमण निग्रन्थ जिन जीवों के शरीरों का आहार करता है (ते वि जीवे अवकंखइ) उन जीवों पर भी वह दया धुद्धि करता है । इसलिये हे गौतम ! (से तेणटेणं जाव वीइवयइ ) इस आशय से मैंने ऐसा कहा है कि प्रासुक निर्दोष आहारादि को अपने उपयोग में लाता हुआ श्रमण निग्नन्य आयुष्कर्म को छोड़कर आने के लिये सातकर्मप्रकृतियों को नहीं बांधता है, तथा जा पहिले बंध चुकी हैं जिनकी लंबेकाल की स्थिति पड़ी है और तीन अनुभाग जिनमें पड़ा है, उन्हें अल्पकालस्थितिवाली बनाता है और मन्द अनुभागवाली बनाता है। तथा बहुप्रदेशाग्रवाली प्रकृतियों को वह अल्पप्रदेशाग्रवाली बनाता है। इस तरह वह यावत् संसार अटवी से पार हो जाता है । तात्पर्य इस सूत्र का यह है कि आधाककखइ" यावत् छ सय सुधाना वानी मनु४५। रामेछ. मी “यावत" પદથી અષ્કાય, તેજસ્કાય વાયુકાય અને વનસ્પતિકાયને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. "जेसि पि य ण जीवाण सरीराइं आहाराई' तथा- श्रम नियरेवानां शरीरोनी पाहा२ ४२ "ते वि जीवे अवकंखइ" ते ५५ इयामा राजे छ. गौतम ! “से तेणठेणं जाव वीइवयइ" ते २२ में मेवं उद्यु છે કે પ્રાણુક નિર્દોષ આહારદિને ઉપયોગ કરનાર શ્રમણ નિગ્રંથ આયુષ્યકર્મ સિવાયની સાત કમ પ્રકૃતિને બંધ બાંધતો નથી. અને જે કર્મ પ્રકૃતિનો બંધ પહેલાં બાંધેલ હોય છે, જેમની દીર્ધકાલની સ્થિતિ હોય છે, જેમને તીવ્ર અનુભાગ હોય છે, એવી કમપ્રકૃતિને તે અલ્પકાળની સ્થિતિવાળી અને મંદ અનુભાગવાળી બનાવે છે. અને બહંપ્રદેશવાળી કમપ્રકૃતિને તે અપપ્રદેશવાળી બનાવે છે. આ રીતે તે સ સારકાંતારને ઓળંગી જાય છે. આ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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