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भगवती सूत्रे
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esकर्मबन्धनव्यतिरिक्तं सर्वम् संवृतानगारवदेव बोद्धव्यं संसारख्यतिव्रजनपर्यन्त मिति भावः । ' से केणट्टेणं जात्र बीइवयइ ' तत्केनार्थेन यावद् व्यतिव्रजति ? संसारकान्तारं समुयति ? भगवानाह - ' गोयमा ' इत्यादि । ' गोयमा' हे गौतम ! 'फासुएसणिज्जं' मासुकैषणीयम् अचित्तं निर्दोषमाहारादिकम् 'भुंनमाणे ' मुनः तादृशमाहारादिकमाहरन् 'समणे णिग्गंथे' श्रमणो निर्ग्रन्थः 'आयाए धम्मं' आत्मनः धर्मम् = चारित्रधर्मम् ' श्रुतधर्म च नो अइक्कम ' नो अतिक्रामति नोल्लङ्घयति ' आयाए धम्मं अणइक्कममाणे ' आत्मनो धर्ममनतिक्रामन् ' पुढवि काइयं अवकखति' पृथिवीकायिकमवकांक्षति अवकांक्षणमपेक्षणमनुकंपनं च तथा चापेक्षतेऽनुकंपते चेत्यर्थः, ' जाव तसकार्य अवकंवद ' यावत् सकायमवकांक्षति सब कथन, आयुष्क कर्मबंध के सिवाय संवृत अनगार की तरह से ही जानना चाहिये । यह कथन कहां तक उसकी तरह जानना चाहिये तो इसके लिये सूत्रकारने (वीहवयह) ऐसा कहा है-जिसका तात्पर्य है कि इसके संबंध का और अवशिष्ट कथन ( संसार को पार कर देना हैं ) इस निर्दिष्ट पद तक ही जानना चाहिये । ( से केणडे जाव arrass ) हे भदंत आप ऐसा कथन किस आशय से करते हैं कि वह संसाररूप कान्तार को उल्लंघन कर देता है। तो इसका उत्तर देते हुए प्रभु गौतम से कहते हैं कि - ( गोयमा ) हे गौतम! ( फासुएसणिज्जं ) अचिन्त निर्दोष आहार आदि को ( भुजमाणे ) अपने उपयोग में लाने वाला (समणे निथे ) श्रमण निर्ग्रन्थ ( आया धम्मं) आत्मा के धर्म का तचारित्ररूप धर्म का - ( नो अहकमह ) उल्लंघन नहीं करता है । आयाए धम्मं अणइक्कममाणे ) आत्मा के श्रुतचारित्ररूप धर्म का उल्लंघन नहीं करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ ( पुढविकाइयं अवकखति) पृथिवीकायिक
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“ સંસારને પાર કરી જાય છે” ત્યાં સુધીનું તમામ કથન સંવૃત અણુગારના કથન પ્રમાણે જ સમજવું. वीवयइ " भेटले संसारने पार उरी लय छे. " से केण देण जाव वीइवयइ ? " डे लहन्त ! आप शा आरशे खेषु કહા છે કે તે સંસારરૂપી કાંતારને ઓળંગી જાય છે? તેના જવાબ આપતાં महावीरप्रभु उडेछे " गोयमा ! हे गौतम! " फासुएसणिज्जं " अयेत निर्दोष आहार वगेरेनो " भुजमाणे " उपयोग ४२नार " समणे निग्गंथे "
શ્રમણ નિગ્રંથ आयाए धम्मं " આત્માના ધંનું-શ્રુત ચારિત્રરૂપ ધર્મનું–
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" नो अइकमइ" उस धन उरतो नथी. आयाए धम्मं अइकममाणे " आत्माना ધમ નું–શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મનું-ઉલ્લંધન ન કરનાર શ્રમણ નિગ્રંથ “ 'पुडविकाइयं अवकंखति " पृथ्वीजयनी अनुया ( हया ) राजे छे. जाव तसकार्य अव.
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨