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________________ भगवतीदने टीका-'आहाकम्मं णं भुंजमाणे आधार्म खलु भुञ्जानः, आधाय साधु मनसि निधाय कर्म = पड्कायोपमर्दऽपूर्वकमाहारादिनिष्पादनम् तत् आधाकर्म, आधया साधुप्रणिधानेन यत् क्रियते-सचेतनं वस्तु अचेतनं, क्रियते अचेतनं वा वस्तु पच्यते, चीयते वा उपाश्रयादिकं, व्यूयते वा वस्त्रादिकं तत् आधाकर्म, तादृशमाहारादिकं 'भुंजमाणे ' भुञ्जाना तादृशाहारादेरुपभोगं कुर्वाणः ' समणे निग्गंथे ' श्रमणो निर्ग्रन्थः 'किं बंधइ ' किं बध्नाति कीदृशं कर्म बध्नाति, प्रकृति बन्धापेक्षया स्पृष्टावस्थापेक्षया वा, 'किं पकरेइ' किं प्रकरोति स्थितिबन्धापेक्षया वृद्धावस्थापेक्षया वा, 'किं चिणाइ' किं चिनोति अनुभागबन्धापेक्षया, निधत्ता टीकार्थ-(आहाकम्मं गं भुंजमाणे ) साधु को अपने मन में रखकर षटूकाय के जीवों के उपमर्दनपूर्वक जो आहार आदि का निष्पादन होता है वह आधाकर्म है । (आघाय कर्म इति आधाकर्म) इस प्रकार की इसकी व्युत्पत्ति है, साधुओं को मन में रखकर उनके आहार के लिये षट्कायिक जीवों का उपमर्दन करना अथवा-आधया कर्म इति आधाकर्म साधु को निमित्त करके सचेतन वस्तु को अचेतन करना, अचेतन वस्तु को पकाना, उपाश्रयादिक बनवाना, वस्त्र वगैरह बुनवाना यह सब आधाकर्म आहार आदि का उपभोग करने वाला (समणे निग्गंथे ) श्रमण निर्ग्रन्थ (किं बंधइ) प्रकृति बंध की अपेक्षा से अथवा स्पृष्टावस्था की अपेक्षा से कैसे कम का बंध करता है ? ( किं पकरेइ ) स्थितिबंध की अपेक्षा से अथवा वृद्धावस्था की अपेक्षा से क्या करता है ? ( किंचिणाइ ) अनुभागबंध की अपेक्षा से अथवा निधत्तकरण की टी -“आहाकम्मण भुजमाणे " साधुने निभित्ते ७ या वाना વિનાશવાળે જે આહાર વગેરે તૈયાર કરાય છે તે આહારને આધા કર્મોષથી इषित मामां आवे छे. “ आधाय कर्म इति आधाकर्म" मा प्रभाव तनी વ્યુત્પત્તિ થાય છે–સાધુઓને નિમિત્તે છ કાયના જીની વિરાધના કરીને તૈયાર रेसा मारने माटमा प्रयोग थाय छ, अथा-" आधया कर्म इति आधाकर्म" साधुने निमित्त सत्यत वस्तुने मन्येत ४२वी, मयत वस्तुने राधी, उपाश्रयाडि, मनावरावा, साहिवावा, से. मधान “आधा भ" छ. मावा माथाभ होषथी दूषित साहारने। उप ४२नार "समणे निग्गंथे " श्रम निथ “किं वधइ" प्रकृति मधनी अपेक्षा अथवा स्पृष्टावस्थानी अपेक्षा वा मना मध मांधे छ १ " किं पकरेइ" स्थितिम धनी अपेक्षा अथवा वृद्धावस्थानी अपेक्षा शुरे छे १ " किं चिणाइ" अनुभागमनी શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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