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भगवतीसूत्रे प्रकरोत्येवेति भावः । अन्ययूथिकमतस्य मिथ्यात्वमुक्त्यास्वकीयमतं दर्शयन्नाह'अहं पुण' इत्यादि । 'अहं पुण गौयमा एवं आइक्खामि जाव परूवेमि' अहं पुन गौतम! एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामि, इह यावत्पदेन-'एवं भासेमि एवं पनवेमि' इत्यनयोः संग्रहः, तत्र-आख्यामिकथयामि सामान्येन, भाषे वच्मि विशेषरूपेण, प्रज्ञापयामि हेतुदृष्टान्तेन प्ररूपयामि-भेदकथनेन । तदेवाह-' एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पकरेइ' एवं खल एको जीव एकेन समयेनैकमायुष्कं प्रकरोति 'तं जहा' तद्यथा 'इहभवियाउयं वा परभवियाउयं वा' ही जीव परभव सम्बन्धी आयु का बंध कर लेता है तो फिर इन सत्कृत्यों के करने का और संयमादिक अनुष्ठानों के सेवन करने का प्रयोजन ही निरर्थक हो जाता है । सो ऐसा जो दूसरों ने कहा है सो उनका यह "आयुर्वध कालादन्यत्र ज्ञातव्यम्" कथन आयु के बंध काल के सिवाय के समय का अर्थात् अपर्याप्त अवस्था की अपेक्षा से जानना चाहिये । नहीं तो फिर यह कथन अन्यतीर्थिकजनों का असत्य नहीं ठहराया जा सकता जो वे एसा कहते हैं कि जीव आयु के बंधकाल में इस भव सम्बन्धी आयु का वेदन करता है अर्थात् भोगता है और परभव सम्बन्धी आयुका बंध करता है। कारण कि जैनसिद्धान्त की भी यही मान्यता है। इसी तरह अन्यतीर्थिकजनों के मत को असमीचीन कहकर अपना इस विषय में क्या मन्तव्य है सो दिखाने के लिये सूत्रकार कहते हैं
(अहं पुण गोयया! एवं आइक्खामि, जाव परूवेमि ) हे गौतम ! में भी इस विषय में ऐसा ही कहता हूँ यावत् प्ररूवणा करता हूँ, कि બંધ બાંધી લેતા હોય તે તેને પછી સત્કૃત્ય કરવાનું અને સંયમાદિની આરधना ४२वातुं प्रयासन हेतु नथी. “आयुबंध कालादन्यत्र ज्ञातव्यम्" आयु જે અન્ય મતવાદીઓનું કથન છે તે આયુષ્યના બંધકાળ સિવાયના સમયની એટલે કે અપર્યાપ્ત અવસ્થાની અપેક્ષાએ સમજવું. નહીં તે અન્ય તીથિકનું “જીવ આયુષ્યના બંધ કાળે આ ભવ સંબંધી આયુષ્યનું વેદન કરે છે–ભગવે છે અને પરભવ સંબંધી આયુષ્યને બંધ બાંધે છે ” આ કથન અસત્ય કહી શકાશે નહીં, કારણ કે જૈનસિદ્ધાન્તની પણ એ જ માન્યતા છે. આ રીતે અન્ય તીથિકના મતને મિથ્યા-અસ્વીકાર્ય–કહીને આ વિષયમાં પિતાનું શું મન્તવ્ય છે તે બતાવવાને માટે સૂત્રકાર કહે છે કે—
(अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि, जाव परूवेमि ) 3 गीतम! है २ विषयमा मे ४ छु, यावत् ५३५४! ४३ छ ( एगे जीवे एगेणं
શ્રી ભગવતી સૂત્રઃ ૨