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अमेयचन्द्रिका टोका श०१ उ. ९ सू० ३ निर्ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम् २८१ करोति, संवृतः संवरं प्राप्तः सन् कालं करोति म्रियते, 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् 'सिज्झइ ' सिद्धयति, सिद्धिपद प्राप्नोति ? 'बुज्झइ' बुद्धयते, बोध केवलज्ञानमाप्नोति, 'मुच्चई' मुच्यते, ज्ञानावरणीयादि कर्मकात् निवृत्तो भवति, 'जाव अंतंकरेइ ' यावदन्तं करोति यावत्पदेन परिनिव्वाइ सम्बदुक्खाण' इति संग्रहः । परिनिर्वाति-कर्म संतापराहित्येन शीतली भवति, सर्वदुःखानां शारीरमानसिकदुःखानाम् अन्तं करोति किम् ? भगवानाह- हते ' त्यादि । 'हंता गोयमा' हन्त हे गौतम ! ' कंखपओसे खीणे ' कांक्षाप्रदोषे क्षीणे सति 'जाव अंतं करेइ ' यावदन्तं करोति, यस्य कांक्षा प्रदोषो विनष्टो जातः स सिदो बुद्धः मुक्तः परिनिर्वान्तः सर्वदुःखान्तकरश्च भवतीति भावः ॥ सू० ३ ॥
॥ इति निर्ग्रन्थप्रकरणम् ॥ अथवा-पहिले वह बहुत मोहवाला होकर विहार करे और बाद में संवर से युक्त होकर मर जावे, तो क्या वह सिद्ध होता है, बुद्ध होता है ? मुक्त होता है ? यावत् समस्त दुःखों का अंत करता है ? सिद्धिपद को प्राप्त होना इसका नाम सिद्ध होना है। केवल ज्ञान को प्राप्त करना इसका नाम बुद्ध होना है। संसार सागर से निवृत्त होना इसका नाम मुक्त होना है। शारीरिक, मानसिक दुःखों का अन्त करना इसका नाम सर्व दुःखान्तकर है । यहां यावत् पदसे "परिनिव्वाइ" इस पद का संग्रह हुआ है । कर्म संताप से रहित होकर शीतली भूत होना इसका अर्थ है । ( हंता गोयमा ! कंखपओसे खीणे जाव अंतं करेइ) हां गौतम ! कांक्षा प्रदोष नष्ट होने पर श्रमण निर्ग्रन्थ सिद्ध होता है, बुद्ध होता है मुक्त होता है, परिनिर्वात होता है और सर्व दुःखों का अन्त करनेवाला होता है । सू-३॥ संवुडे कालं करेइ. तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्जइ, मुच्चइ, जाव सव्वदुक्खाणं अतं करेइ?) अथवा-५ ते अभय घ ८ मोहयुत ने वियरत डाय, પણ ત્યાર બાદ સંવૃત થઈને (સંવર યુક્ત થઈને) મરણ પામે તે શું તે સિદ્ધ થાય છે, બુદ્ધ થાય છે, મુક્ત થાય છે? પરિનિવૃત થાય છે? અને તમામ ખેને અંત કરે છે? સિદ્વિપદ (મેક્ષ) પ્રામ કરવું એટલે સિદ્ધ થવું. કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવું એટલે બુદ્ધ થવું. સંસાર સાગરને તરી છે એટલે મુક્ત થવું. કર્મસંતાપથી રહિત થઈને શીતલીભૂત થવું એટલે પરિનિર્વત થવું, અને શારીરિક તથા માનસિક દુઃખને નાશ કરે એટલે સર્વ દુઃખાનકર થવું.
(हंता गोयमा! कंखपओसे खीणे जाव अंतं करेइ) & गौतम! sinalબને નાશ થવાથી શ્રમણ નિગ્રંથ સિદ્ધપદ પામે છે, બુદ્ધ બને છે, મુક્ત થાય છે, પરિનિર્વત થાય છે અને તમામ દુઃખેને અંત કરનાર બને છે. સૂ૦ ૩
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨