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भगवतीसरे प्रशस्तम् , साधूनामेतत्सर्वमक्रोधवादिकं प्रशस्तं तच्चोपादेयमेव । ‘से शृणं भंते' तद् नूनं भदन्त ! ' कंखपओसे गं' कांक्षाप्रदोषे खलु ‘खीणे' क्षीणे, विनष्टे सति, 'समणे निग्गथे' श्रमणो निर्ग्रन्थः, 'अंतकरे भवइ ' अन्तकरो भवतिकिम् ? कांक्षाप्रदोषः कांक्षा = परदर्शनवाञ्छा, परदर्शनविषयागृद्धि, सेव प्रकृष्टो दोष इति कांक्षाप्रदोषः। ' अंतिमसरीरिए वा' अंतिमशरीरको वा मवति किम् ? अथवा 'बहुमोहे वि य णं ' बहुमोहोपि च खलु भूत्वा 'पुन्धि वि हरित्ता' पूर्व विहत्य ' अहपच्छा' अथ पश्चात् ‘संबुडेकालं करेइ ' संवृतः कालं कहने का यह है कि श्रमणों में श्रमणता तब ही आती है कि जब उनमें क्रोधादिकषायों का अभाव हो । अतः जिस प्रकार से लाघवादिकरूप प्रवृत्तियां श्रमणजनों के लिये हितावह हैं उसी प्रकार से इन लाघवादिकों की शोभा निमित्त क्रोधादिकों की अभावरूप प्रवृत्तियां भी उनके लिये हितकारक है । अतः ये सब उपादेय हैं।
(से गुणं भंते ! ) हे भदन्त ! ( कंखपओसे ) कांक्षाप्रदोष (खीणे) नष्ट हो जाने पर (समणे निग्गंथे ) श्रमण निर्ग्रन्थ (अंतकरे भवइ) क्या अंतकर होता है ? पर दर्शन विषयक आग्रहरूप वाञ्छा का नाम कांक्षा है। अथवा-परदर्शन विषयक आसक्तिरूप-गृद्धि का नाम कांक्षा है। यह एक बड़ा भारी दोष है । अतः इस वाञ्छा को प्रकृष्ट दोषरूप मान कर उसे " कांक्षाप्रदोष" इस समासान्त पद द्वारा प्रकट किया गया है। अंतिमसरीरिए वा ) तथा क्या वह अन्तिमशरीर वाला होता है ? (बहुमोहे वि य णं पुचि विहरित्ता, अहपच्छा संखुडे कालं करेइ, तओ पच्छा सिज्झइ, घुज्झइ, मुच्चा, जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ ?)
માં સાચી શ્રમણતા ત્યારે જ આવે છે કે જ્યારે તેમનામાં ક્રોધાદિ કષા એને અભાવ હોય છે. તેથી લાઘવાદિ રૂ૫ પ્રવૃત્તિ જેવી રીતે અમને માટે હિતકર છે, એ જ પ્રમાણે ક્રોધાદિકેના અભાવરૂપ પ્રવૃત્તિ પણ તેમને માટે હિતકારક છે. અને તેથી તે બધી પ્રવૃત્તિ ઉપાદેય છે.
(से णूणं भंते !) हे मावन् ! (कंखपओसे खीणे समणे निग्गंथे अंतकरे भवइ? siक्षाहोश न पामे त्यारे शु श्रम नि । संसा२नो मत४२ નાર બને છે? બીજા પ્રદર્શન વિષયક આગ્રહ રૂપ વાંછા (અભિલાષા) નું નામ કાંક્ષા છે. અથવા બીજા દર્શન વિષયક આસક્તિ નું નામ કાંક્ષા છે. તે ઘણે માટે દોષ ગણુાય છે. તે કાંક્ષાને પ્રકૃષ્ટ દેષરૂપ માનીને તેને માટે "ianोष" शहने प्रयास - छ. (अंतिम सरीरए वा) शुते श्रम मतिम शशश ? (बहुमोरे वि य गं पुदिव विहरित्ता, अह पच्छा
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨