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भगवतीसूत्रे प्राकृतत्वात् सर्वतः सर्वासु दिक्षु, ' सव्वावंति' प्राकृतत्वात् सर्वात्मना सर्वरूपेणेत्यर्थः, अथवा ' सव्यावं ' इति सर्वम् क्षेत्रम् , इति शब्दो विषयभूतं सर्व क्षेत्रम् ' फुसमाणकालसमयसि । स्पृश्यमानकालसमये, स्पृश्यमानक्षणे इत्यर्थः, अथवा 'स्पृशत्कालसमये' इति छाया, तत्र स्पृशतः सूर्यस्य स्पर्शनायाः कालसमयइति स्पृशत्कालसमयस्तस्मिन् । स्पर्शनं चातपेनेति गम्यते । 'जावइयं खेतं फुसइ' यावत्कंक्षेत्रं स्पृशति, 'ताव इयं' तावत्कम् ‘फुसमाणे पुढेत्ति वत्तव्वं सिया' में (सव्वावंति ) सर्व रूप से (फुसमाणकालसमयंसि) स्पृश्यमानकाल समयमें (जावइयं खेत्तं फुसइ) जितने क्षेत्र को सूर्य छूता है, (तावइयं) उतना वह (फुसमाणे ) स्पृश्यमान क्षेत्र क्या (पुढे-त्ति वत्तव्वं सिया) स्पृष्ट ऐसा कहा जा सकता है ? यहां "सव्वंति" यह पद प्राकृत होने से " सर्वतः" इस अर्थ का द्योतक है । इसका अर्थ है समस्त दिशाओं में " सव्वावंति ” यह पद प्राकृत होने से " सब रूप से सर्वात्मा से" इस अर्थ का कहनेवाला है । अथवा “ सव्वावंति त्ति" ऐसे सर्व क्षेत्र को कि जो अपने आतप का विषयभूत है छूता है ? न कि सब क्षेत्र को " स्पृश्यमानकालसमये" इसका अर्थ एक तो " स्पृश्यमान क्षण में" अर्थात् जिस समय सूर्य स्पर्श करता है उस समय में, ऐसा होता है
और दूसरा अर्थ स्पर्श करते हुए सूर्य की स्पर्शना के कालसमय में ऐसा होता है। यहां सूर्य की स्पर्शना आतप से होती है इस लिये " आतप" यह पद यहां अध्याहार्य है । तात्पर्य इसका यह है-कि सूर्य "सव्वावंति” स१३थे “फुसमाणं कालसमयंसि” २५श्यमान समयमा “जाव. तियं खेत्तं फुसइ" रेटमा क्षेत्री सूर्य २५ ४२ . “तावतिय खेत्तं फुसमाणे पदेत्ति वत्तव्वं सिया ?” मेटा स्पृश्यमान क्षेत्रने अस्पृष्ट ४डी शय छ १ माही " सव्वंति" ५४ प्राकृत छे. मने तेन। म “सर्वतः" थाय छे. "सर्वतः" सो समस्त हिशामामा “ सव्वावंति" ५ प्राकृत छ तेनी म “ सर्व ये सर्वात्माथी" थाय छे. अथवा " सव्वावति ति" मे सभरत क्षेत्र में જે સૂર્યના આતપને વિષયભૂત બને છે. તેને સ્પર્શે છે નહીં કે બધાં ક્ષેત્રને "स्पृश्यमानकाल समये" तेना मे अर्थ " स्पृश्यमान क्षमा-सटोरे સમયે સૂર્ય સ્પર્શ કરે છે એવા સમયે ” એવો થાય છે, અને બીજો અર્થ
સ્પર્શ કરતા સૂર્યની સ્પર્શનના કાળ સમયમાં” એ થાય છે. સૂર્યની २५२ ना मात५ भा२३त थाय छ तेथी मही " आतप" ५४ मध्याहीय (64રથી લેવાયલું) છે એમ સમજવું. હવે પ્રશ્નનું તાત્પર્ય એ છે કે સૂર્ય સમસ્ત
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨