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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श०१३०६सू०१ सूर्यप्रकाशक्षे त्रस्पर्शनावक्तव्यता १३ ' एवं उज्जोवेइ तवेइ पभासेइ जाव नियमा छदिसि " एवं उद्योतयति तपति प्रभासयति यावत् नियमात् षड्दिशम् , एवम् अनेन प्रकारेण, अर्थात्-यः सूत्रसमूहः 'ओभासइ' अवभासयति, अवभासनक्रियापदेन.संयोज्य व्याख्यातः स सूत्रसमुदायः " उज्जोवेइ तवेइ पभासेइ” उद्योतयति तपति प्रभासयति, इत्यादिपदत्रयेणापि संयोज्य वक्तव्य एव, कियदवधि ? इत्याह-जाव नियमा छदिसिं' यावच्छब्देन-अवभासनसूत्रोक्तः सर्वोऽपि पाठः संग्राह्यः । नियमादेव षडपि दिशोऽवभासयति उद्योतयति तपति प्रभासयति चेति भावः। स्पृष्टमेव क्षेत्रमादित्यः प्रकाशयति उद्योतयति तपति प्रभासयतीत्युक्तम् , अतः स्पर्शनामेव दर्शयन्नाह-' से णूणं भंते ' इत्यादि, ' से शृणं भंते ' तद् नूनं भदंत ! 'सव्यंति' सहित से है। अवशिष्ट संगृहीत पाठ का अर्थ स्पष्ट है । (एवं उज्जोवेइ, तवेइ, पभासेइ जाव नियमा छदिसि ) अर्थात् जो सूत्रसमूह इस प्रकार अवभासनक्रियापद के साथ लगाकर व्याख्यात किया गया है, वह सूत्रसमूह " उज्जोवेइ, तवेइ, पभासेइ" इन क्रियापदों के साथ लगाकर इसी तरह से व्याख्यात करलेना चाहिये, और इस तरह से व्याख्या "जाव नियमा उदिसिं" तक करनी चाहिये । यहां “ यावत् " शब्दसे अव. भासनसूत्रोक्त पूरा पाठ लियागया है। इस का ऐसा भाव है कि नियम से ही वह सूर्य छहों दिशाओं को प्रकाशित करता है, उद्योतित करता है, तपाता है और विशिष्ट रूप से तपाता है । स्पृष्ट क्षेत्र को ही सूर्य प्रकाशित करता है, उद्योतित करता है, तपाता है और विशेष रूप से तपाता है, ऐसा जो कहा गया है सो अब उसी स्पर्शना को दिखाते हुए सूत्रकार कहते हैं-(से नृणं भंते !) हे भदन्त ! (सव्वंति ) समस्त दिशाओं २१॥८ मेट व्यवधानसडित श्रीन सूत्रानो अर्थ २५४ छ. (एवं उज्जोएइ, तवेइ, पभासेइ जाव नियमा छद्दिसि) मेटले 3 मवमासन यापही साथ જે સૂત્રસમૂહોને પાઠ લઈને વ્યાખ્યા કરવામાં આવેલ છે તે સૂત્રસમૂહોને " उज्जोवेइ, तवेइ, पभासेइ" त्याहि ठिया५होनी साथे सधने तेनी व्याच्या ५५] मा५वी नसे. मने ते प्रा२नी व्याय "जाव नियमा छहिसि" सूत्र सुधी ४२वी. मी “ यावत् ” ५४थी ममासनसूत्रत समस्त ५४ ગ્રહણ કરવાનો છે, તેનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે--નિયમથી જ સૂર્ય છએ દિશાએને પ્રકાશિત કરે છે, ઉદ્યોતિત કરે છે, તપાવે છે, અને પ્રભાસિત કરે છે. સ્પષ્ટ ક્ષેત્રને જ સૂર્ય પ્રકાશિત કરે છે ઉદ્યોતિત કરે છે. તપાવે છે અને પ્રભાસિત કરે છે, એવું કહેવામાં આવ્યું છે. હવે એજ સ્પર્શનાને દર્શાવવા માટે सूत्रा२ ४ छ “से नूर्ण भंते! 3 पून्य ! “सव्वंति" समस्त हिशामामा શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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