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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १३०९ सू०१ गुरुत्यादिस्वरूपनिरूपणम्
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पूर्वोक्ताभिलापसंसूचकः सचाभिलाप एवं भवति - ' कहणं भंते! जीवा संसारंआउली करेति, गोयमा ! पाणाइवाएणं जावमिच्छादंसण सल्लेणं ' कथं खलु भदन्त ? जीवाः संसारम् आकुलीकुर्वन्ति, गौतम ! प्राणातिपातेन यावन्मिथ्यादर्शनशल्येन इत्यादि । एवमुतरत्रापि परीतीकरणादिपदेष्वपि अभिलापप्रकारो ज्ञातव्यः । ' एवं परित्ती करें ति ' एवं परीतीकुर्वन्ति = संसारमल्पीकुर्वन्ति, ' एवं दही करेत ' एवं दीर्घोकुर्वन्ति, संसारस्य दैर्ध्य प्रचुरतरकालावस्थायित्वं तथा
है वह पूर्वोक्त अभिलाप का संसूचक है । वह अभिलाप इस प्रकार से होता है - " कहणं भंते ! जीवा संसारं आउली करेति" हे भदन्त ! जीव संसार को किस कारण से बढ़ाते हैं ? " गोयमा ! पाणावाइएणं जाव मिच्छादंसणसल्लेणं " हे गौतम! जीव संसार को प्राणातिपात आदि कारणों के सेवन से लगाकर मिथ्यादर्शन शल्यतक के कारणों के सेवन से बढ़ाते हैं । इसी तरह से परीतीकरणादिक जो आगे के पद हैं उनमें भी अभिलाप प्रकार जानना चाहिये । ( एवं परिती करेंति ) तथाप्रणातिपात आदि संसार वर्धक कारणों से निवृत्त होने से जीव संसार को अल्प कर देते हैं । ( एवं दीही करेंति) और प्राणातिपात आदिकों के सेवन करने से जीव संसार को दीर्घ लंबा कर देते हैं। यहां दीर्घ करने का अभिप्राय यह है कि प्राणातिपात आदिकों के सेवनकर्ता संसार में प्रचुरकालतक भ्रमण करते रहते हैं । अतः ऐसे जीवों की अपेक्षा उनका संसार उनके साथ बहुत बड़े लंबे समय तक रहता है । अर्थात् वह संसार उनका बहुत बड़ी भारी स्थितिवाला बन जाता है । अपने
जने छे -" कहणं भंते ! जीवा संसारं आउली करेंति ” से लगवन् ! शा रखे संसार वधारे छे ? ' गोयमा ! पाणाइवाएणं जात्र मिच्छा इंसणसल्लेणं " હે ગૌતમ ! પ્રાણાતિપાતથી લઇને મિથ્યાદર્શનશલ્ય સુધીનાં પાપાનું સેવન કરવાથી જીવ સ’સારના વધારો કરે છે. એ જ પ્રમાણે પરીતીકરણ ( સીમિતકરણ) વગેરે જે પદો આગળ આવે છે તેમના વિષયમાં પણ અભિલાપ ४२वे. ( एवं परित्ती करें ति) प्राणातिपात वगैरे सौंसारबर्ध ! अरणोथी निवृत्त थवाथी लुत्र स ंसारने अस्य ( सीमित) उरी नाथे छे. ( एवं दीही करे ति ) અને પ્રાણાતિપાત વગેરેનું સેવન કરવાથી જીવ સહસારને વધારે છે. સસારને વધારવા એટલે સંસારમાં લાંખા કાળ સુધી ભ્રમણ કરવું તે. પ્રાણાતિપાત વગેરે ૨૮ પાપાનું સેવન કરનાર જીવ ખડુંજ દીર્ઘ કાળસુધી સસારમાં રહે છે. એટલે કે તેને સ`સાર ખૂબજ લાંખી સ્થિતિવાળા ખની જાય છે. સારાંશ એ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨