SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १ उ०७ सू० ५ गर्भस्थजीवगत्यन्तरनिरूपणम् १७३ आदि वगैरह नामकर्म के साथ उदयरूप से व्यवस्थापित किये गये ऐसे जो कर्म हैं वे व्यवस्थापित कर्म हैं । जिन कर्मों का अनुभाव तीव्ररूप से स्थापित हुआ है वे कर्म अभिनिविष्ट हैं । “ अभिसमनागयाइं" का तात्पर्य है कि जो कर्म उदय के सन्मुख हो रहे हैं । और इसी कारण जो " उदिन्नाइं" उदयावलिका में प्राप्त हो रहे हैं तो जीव ऐसे कर्मों के प्रभाव से कैसा होता है ? इसका उत्तर सूत्रकार ने “ दुरूवे" इत्यादि पदों द्वारा दिया है । दुरूप शब्द का अर्थ विकृत (खराब ) आकारवाला होता है। ऐसा जीव विकृत आकारवाला होता है। “दुवन्ने" कुत्सित वर्णवाला होता है । " दुग्गंधे " दुर्गध आदि वाला होता है। “अणि?" पद यह कहता है कि उसे कोई चाहता नहीं है । ( अकंते) वह अनभिलषणीय होता है " अप्पिए " अप्रिय-सब का अपकार करने वाला होता है । " असुभे" अकल्याणकर होता है। अमनोज्ञ-अहितकारक होता है। अमनोम-सकलजनों के प्रतिकूल रहा करता है । तथा हीनादि स्वर वाला होता है। उसका वचन कोई नहीं मानता है ऐसा वह अनादेय वचन वाला होता है । ' पच्चायाए यावि भवइ" यह पद प्रकट करता है कि ऐसा जीव यदि मनुष्य होता है तो वह ऐसा होता है। तथा મનુષ્યગતિ, પંચેન્દ્રિય જાતિ, ત્રસ વગેરે નામ કમની પ્રકૃતિ સાથે ઉદયરૂપે વ્યવસ્થાપિત એવાં જે કર્મ છે તેને “ વ્યવસ્થાપિત કર્મ ” કહે છે. જે કમેનો અનુભવ તીવ્ર રૂપે સ્થાપિત થયે હોય છે તે કમેને “અભિનિવિષ્ટ छ. “ अभिसमन्नागयाइं" मेट भी हयनी सन्भुम मावी. २ai डाय मने ते २0 2 “ उदिन्नाई” यासिम मावी २ai सय छे એવાં કર્મ એવાં કર્મોના પ્રભાવથી જીવ કેવા સ્વરૂપે ઉત્પન્ન થાય છે, એ सूत्रधारे 'दुरूवे" त्याहि हो 43 मताव्यु छ. “ दुरूवे" मेटले वित (१२।५ पाव वाणे, “दुग्गंधे " मेट हुगन्ध वाणी, “ अणि " (अनिष्ट) से पह से मथ मताव ते ने यातु नथी. “ अकते " ५४ मेम सूयवे छ ते मन्त-मानलिसषीय-डाय छे. “ अप्पिए" प्रिय सौनी अ५४२ ४२ना। डाय छे. "असुभे" अध्यारी , “ अमनोज्ञ" महिता२४, “अमनोम' या सोहीने प्रति॥ २ना। डाय छे. वणीत ગર્ભમાંથી નિકળેલો જીવ હીન વિગેરે સ્વર વાળો હોય છે. તેનાં વચનને કોઈ भानतु नथी, माटे तेने मनाय वयन पाणे यो छ. “ पञ्चायाए यावि માર” આ પદે વડે એ બતાવ્યું છે કે એ જીવ જે મનુષ્ય ગતિમાં જન્મ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy