________________
प्रमेयचन्द्रिका टीका श. १ उ०७ सू० ५ गर्भस्थजीवगत्यंतरनिरूपणम् १७१ अमनोमस्वरः, 'अणाएज्जवयणे' अनादेयवचनः, अग्राह्यवचनः, एतादृशः सन् 'पच्चयाए यावि भवइ' प्रत्यायातश्चापि भवति, मनुष्यभवमागच्छतीति, यस्य जीवस्य ' वण्णवज्झाणियसे कम्माई नो बद्धाइ ' वर्णवद्धयानि च तस्य कर्माणि नो बद्धानि 'पसत्थं णेयव्वं ' प्रशस्तं ज्ञातव्यम् , अत्र पूर्वपाठो व्यत्ययेन-प्रशस्तरूपेन ग्राह्य इत्यर्थः,यदि तस्य जीवस्य कर्माणि अशुभरूपेण नो बद्धानि भवेयुस्तदा सर्व रूपादिकं प्रशस्तमेव भवतीति ज्ञातव्यानीतिभावः। कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव अमनोमस्वरवाला होता है, अनादेयवचनवाला होता है। सूत्रकारने यहां यह कहा है कि यदि गर्भस्थ जीव भाग्यवशात् सुरक्षित रीति से गर्भ से बाहर निकल भी आता है परन्तु यदि उसके पूर्वोपार्जित कर्म निंदनीय या अशुभ आदि रूप हैं और अभीतक वे उपशांत दशा में नहीं आ पाये हैं-उद्य दशा में ही चल रहे हैं तो वह उनके उदय के कारण खोटे रूप
आदि वाला बन जाया करता है। सूत्र में जो " वनवज्झाणि" पद आया है उसका अर्थ “ निंदनीय या अशुभ" ऐसा है, कारण कि-वर्ण शब्दका अर्थ श्लाघारूप वर्ण जिनका नष्ट हो चुका है, अर्थात् जो निंदनीय हैं वे कर्म । अथवा जो कर्म अशुभ हैं वे "वष्णवज्झ" है यहां इस पद की संस्कृत छाया "वर्णबाह्य " ऐसी होगी, क्योंकि जो अशुभ कर्म होते हैं वे वर्ण से-प्रशंसा से बाह्य बहिर्भूत हुआ करते हैं। (बद्ध) का तात्पर्य यहां सामान्यरूप से बांधे गये ऐसे कर्मों से है (पुट्ठाई ) पद से यह बात स्पष्ट होती है कि जो गाढ बंधन से पुष्ट किये हैं ऐसे वे कर्म । अथवा વરવાળો હોય છે, અમનોમસ્વરવાળો હોય છે, અને અનાદેય વચનવળ હોય છે. સૂત્રકાર અહીં એ બતાવે છે કે ગર્ભને જીવ જે ભાગ્યવશાત સુરક્ષિત રીતે ગર્ભમાંથી બહાર નીકળે તે પણ તેના પૂર્વોપાર્જિત કર્મ જે નિંદનીય અથવા અશુભ હોય અને જ્યાં સુધી તેના તે કર્મો ઉપશાન્ત દશામાં આવ્યાં ન હોય ઉદય દશામાં જ હોય તો તે કર્મોના ઉદયને કારણે તે જીવ ખરાબ રૂપ વગેરે वाणो मे छ. सूत्रमा आपे “ वन्नवज्झाणि" पहनो म अडिं “निहनीय है सशुल" वो थाय छे. ४।२।
" शहनी मथ “શ્લાઘા” પણ થાય છે. તે શ્લાઘારૂપ વર્ણ જેને નષ્ટ થઈ ગયું છે એટલે કે જે નિંદનીય છે એવાં કર્મ અથવા જે કર્મ અશુભ હોય છે. તેમને "वण्णवज्झ" छ. मी तेनी सस्कृत छाय। “वर्णबाह्य" मेवी थाय छे. કારણ કે જે અશુભ કર્મો હોય છે ને વર્ણથી (પ્રશંસાથી) બાહ્ય (રહિત) होय छे. “बद्ध" मेटले सामान्य ३थे सांधेस भी. "पुट्राई" पहने। मथ पद मधिनथी पुष्ट ४२॥येस भ मेवा समन्या. अथवा "पुदाई" मे पह
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨