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प्रमैयचन्द्रिकाटीका श.१ उ. ७ सू०१ नैरयिकाणामुत्पत्त्यादिनिरूपणम् १९ प्रतिबद्धन जीवस्यैकदेशेनोत्तरावयविनारकदेशो न निवर्तयितुं शक्यते इति १ । तथा- नो देसेणं सव्वं उववज्जइ' नो देशेन सर्वमुपपद्यते, न देशेनावयवेन सर्वम् सर्वतयोत्पद्यते अपरिपूर्णकारणत्वात् तन्तुना पट इवेति२। तथा-'नो सव्वेणं देसं उववज्जइ ' नो सर्वेण देशम् उपपद्यते, सर्वेण देशं देशतया अवयवतयापि निर्माण होता है वह उन तंतुओं के एकदेश से नहीं होता है,
और न वस्त्र का भी एकदेश उन के एकदेश से तैयार होता है। किन्तु समस्त तंतुओंसे ही समस्त वस्त्र का निर्माण किया जाता है। अवयवी का एकदेश पूर्ण अवयवी नहीं कहलाता। पट का ऐसा कोई सा भी भाग तंतुओं के एकदेश से तैयार नहीं होता है, जो पट से जुदा हो। उपादान कारण अपने कार्य के साथ जुड़ा हुआ होता हैअर्थात्-अपने आप को वह कार्यरूप में परिणमा देता है। तब उसका कोई सा भी ऐसा भाग नहीं होता है, जो अपने कार्य के एकदेश को उत्पन्न करे, किन्तु पूर्ण उपादान ही अपने पूर्ण कार्य को निष्पन्न करता है, अतः जब यह सिद्धान्त निश्चित है तो फिर यह कैसे माना जा सकता है कि उत्पद्यमान नारकजीव अपने एकदेश से ही नारकजीव की पर्याय के एकदेश में उत्पन्न होता है। तथा-"नो देसेणं सव्वं उववजइ" इस का भाव यह है। कि वह उत्पद्यमान नारकजीव अपने एकदेश से पूर्णनारकरूप पर्याय में उत्पन्न नहीं होता है जैसे एक तन्तु से पूरा पट उत्पन्न नहीं होता है। तथा-"नो सम्वेणं देस उववज्जइ" मेशथी वखना मेशिनु नि तुं नथी. भाटे ४युं छे -" नो देसेणं देसं उवज्जइ" ५२'तु या ततु43 सपू पखन निर्माण थाय छे. અવયવીના એકદેશને પૂર્ણ અવયવી કહેવાતો નથી. વસ્ત્રને એ કઈ પણ ભાગ તંતુઓને એકદેશથી–એક ભાગથી તૈયાર થતા નથી કે જે વસ્ત્રથી જુદો હોય. ઉપાદાન કારણ પિતાના કાર્ય સાથે જોડાયેલું જ હોય છે એટલે કે પોતાને જ તે કાર્યરૂપે પરિણાવે છે તેથી તેને કેઈપણ ભાગ એવો હતો નથી કે જે પોતાના કાર્યના એકભાગને ઉત્પન્ન કરતો હોય, પણ પૂર્ણ ઉપાદાનજ તેના પૂર્ણ કાર્યનું નિર્માણ કરે છે. આ પ્રકારનો સિદ્ધાંતનિશ્ચિત હોવાથી ઉત્પદ્યમાન નારાજીવ પોતાના એકદેશથી નારક
वनी पर्याय ना मेहेश३ लत्पन्न थती नथी. तथा "नो देसेणं सव्व उववज्जा" ને ભાવાર્થ એ છે કે જેવી રીતે એક તંતુમાંથી પૂરું વસ્ત્ર તૈયાર થતું નથી એવી જ રીતે ઉત્પદ્યમાન (ઉત્પન્ન થનાર) નારક જવ એકદેશથી પૂર્ણ નારક ३५ पर्यायमा उत्पन्न थत! नथी. तथा “ नो सव्वेणं देस उववज्जइ" न मापाथ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨