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________________ भगवतीसूत्रे जायते, सम्पूर्णरूपेणैव दुग्धं सम्पूर्णदधिरूपतयैव परिणमते न तु दुग्धस्यैकदेशेन दध्न एकदेशो भवति, यथा वा तन्तुना पटाप्रतिबद्धपटप्रदेशः । यथा पटदेश भूतेन तन्तुना पटाप्रतिबद्धः पटदेशो न निर्वयते, तथैव पूर्वतिर्यगाद्यवयविक्यों कि कारणसे अर्थात् अपने एक अंशसे अपने कार्यके एक अंशरूपमें उत्पन्न नहीं होता, इसका अभिप्राय ऐसा है कि जो परिणामी कारण होता है उसके एक अवयव से कार्य के एक अवयव की उत्पत्ति स्वीकृत नहीं की गई है, क्यों कि जो परिणामी कारण होता है-अर्थात् उपादान कारण होता है-वह अपने सर्वरूप से ही कार्य के आकार में परिणम जाता है । ऐसा नहीं है कि उसके एकदेश से उसके कार्य का एकदेश निष्पन्न होता हो । जसे दही का उपादान कारण दूध है सो वह उपादान कारणरूप दूध अपने समस्त अवयवों से ही संपूर्ण दधिरूप में परिणमता है। ऐसा नहीं है कि उस दूध के एकदेश से दही का एकदेश निष्पन्न होता हो । तात्पर्य कहने का यह है कि जो उपादान कारण होता है वह नियम से अपने सम्पूर्णरूप से अपने कार्यरूप में बदल जाता है। उपादान की उपादानता केवल यही तो है कि जो वह अपने आप को समस्तरूप में कार्यरूप में परिणमा देता है । दही का उपादान कारण दूध अपने समस्त निजरूप को दहीरूप में बना देता है। जैसेवस्त्र के एकदेशभूत तंतुसे पटाप्रतिबद्ध पटप्रदेश उत्पन्न नहीं होता है। उसी तरह पूर्वतिर्यगादि-अवयवी में प्रतिबद्ध रहते हुए जीव के एकदेश से उत्सरावयवीरूप नारकका एकदेश निष्पन्न नहीं हो सकता है। कहनेका तात्पर्य यह है कि आतानवितातीभूत तंतुओंसे (तानावाना किये हुए) बनते हुए वस्त्र के उपादान कारण वे तंतु होते हैं, और वह वस्त्र उनका कार्य होता है। अब यहांपर यह विचारना चाहिये कि उन तंतुओंसे जो वस्त्रका આવેલ છે. જેમ કે દહીંનું ઉપાદાન કારણ દૂધ છે. તે ઉપાદાન કારણ રૂપ દૂધ પિતાના તમામ અંશથી તમામ અંશે સહિત દહીં રૂપે પરિણમે છે. એવું નથી હોતું કે દૂધના એકદેશથી દહીંને એકદેશ બને. ઉપાદાન કારણની મહત્તા એજ છે કે તે પોતાને સમસ્ત રૂપે જ કાર્ય રૂપે પરિણુમાવે છે. જેમ વસ્ત્રના એકદેશરૂપ તંતુથી ( તાંતણાથી ) આખું વસ્ત્ર તૈયાર થતું નથી એવી જ રીતે પૂર્વની તિર્યંચ વગેરે યોનિના જીવનના એકદેશ (અવયવોથી નારકને એકદેશ (અવયવ) નિષ્પન્ન થતો નથી. તાત્પર્ય એ છે કે તાણાવાણાઓથી બનતાં વસ્ત્રના ઉપાદાન કારણરૂપ તંતુઓ છે. અને વસ્ત્ર તેમનું કાર્ય છે. હવે તંતુઓના એકદેશથી વસ્ત્રનું નિર્માણ થતું નથી, એટલું જ નહીં પણ તંતુઓના શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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