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प्रमेयचन्द्रिका टीका २० २ १० १० सू० ३ उत्थानादिस्वरूपनिरूपणम् १०५७ आमिनिबोधिकज्ञानपर्यवा अनन्ता इति भावः “ एवं मुयणाणपज्जवाणं" एवं श्रुतज्ञानपर्यवाणाम् अनन्तानामित्यस्य सर्वत्र सम्बन्धस्तेनाऽनन्तानां श्रुतज्ञानपर्यवाणामित्यर्थः एवमेवाऽवधिज्ञानादावपि योजनीयम् "ओहिणाणपज्जवाणं" अवधिज्ञानपर्यवाणामनन्तानाम् "मण पज्जवणाणपज्जवाणं" मनापर्यवज्ञानपर्यवाणाम्-" केवलणाणपज्जवाणं " केवलज्ञानपर्यवाणाम् “मइ अभाणपज्जवाणं" मत्यज्ञानपर्यवाणाम् "सुअअण्णाण पजवाण" श्रुताज्ञान पर्यवाणाम् “ विभंगण्णाण पज्जवाणं ' विभंगज्ञानपर्यवाणाम्-' चक्खुदंसणपज्जवाणं ' चक्षुर्दर्शनपर्यवाणाम्. 'अचक्खुदंसण पज्जवाणं' अचक्षुदर्शनपर्यवाणाम् 'ओहिंदंसणपज्जवाणं' अवशरूप मतिज्ञान आदि के अनन्त अंशों में से किसी एक अंश को प्रकट करता रहता है ऐसा कहने में कोई बाधा नहीं है इसी तरह का विवेचन श्रुतज्ञान आदि के विषय में भी समझना चाहिये। (अनन्त ) इस पद का संबंध यहां सब जगह कर लेना चाहिये। तथा च-( एवं सुयणाणपज्जवाणं) इसी प्रकार से वह संसारी जीव अनन्त श्रुतज्ञान की पर्यायों के उपयोग को-(ओहिनाणपज्जवाण) अवधिज्ञान की अनन्तपर्यायों के (मणपज्जवणाणपज्जवाणं) मनः पर्यवज्ञान की अनन्तपर्यायों के ( केवलणाणपज्जवाणं) केवलज्ञान की अनन्त पर्यायों के (मई अनाणपज्जवाणं) मत्यज्ञान की अनन्तपोधों के ( सुय अण्णाणपज्जवाणं) श्रुताज्ञान की अनन्तपर्यायों के, (विभंगणाणपज्जवाणं) विभंगज्ञान की अनन्तपर्यायों के ( चक्खुदंसणपज्जवाणं) चक्षुदर्शन की अनंतपर्यायों के (अचक्खुदंसणपज्जवाणं ) अचक्षुर्दर्शन की अनंतपर्यायों કોઈ એક અંશને પ્રકટ કરતો રહે છે–એવું કહેવામાં કોઈપણ પ્રકારને વાંધો નથી, श्रुतज्ञान माहिना विषयमा ५ मे २नुं ४थन सम० दे "अनन्त" अनन्त पहनेसमय अडी मधी यामे ४२ नये. 4जी ( एवं सुयणाणपज्जवाण) ते ससारी ७ मनात श्रुतज्ञाननी पर्यायाना योगने, (ओहिनाणपज्जवाणं) अपविज्ञाननी मन पर्यायाना उपयोगने, (मणपज्जवणाणपजवाण ) भना५५ ज्ञाननी सनत पर्यायाना उपयोगन, ( केवलणाणएज्जवाणं) उवज्ञाननी मनात पर्यायाना 6पयोगन प्रास ४३ छ, भने त ७१ ( मई अण्णाणपज्जवाण) भतिज्ञाननी मन पर्यायाना (सुयअण्णाणपज्जवाणं) श्रुत मज्ञाननी मन पर्यायाना, (विभंगणाण पज्ज. वाण' )
विज्ञाननी त पर्यायाना, (चचक्खुदसणपज्जवाण) यशननी मानत पर्यायाना, ( अचक्खुदसणपज्जवाणं) मया शनी मनात यायोना,
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨