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प्रमेयचन्द्रिका टी० श० २ उ० १० सू० १ अस्तिकायस्वरूपनिरूपणम् १०१९ वान् “ कतिफासे” कतिस्पर्शवान् । हे भगवन् ! धर्माऽस्तिकाये कति वर्णगन्ध रसस्पर्शाः भवन्तीति कथयेति भावः । भगवानाह-'गोयमा ' इत्यादि ‘गोयमा' हे गौतम ! 'अवण्णे अगंधे अरसे अफासे अस्वी अजीवे सासए अवहिए लोगदव्वे' अवर्णोऽगन्धोऽरसोऽस्पर्शः-अरूपी अजीवः शाश्वतोऽवस्थितो लोकद्रव्यम् । तत्र अवर्णः नीलपीतादिपञ्चवर्णरहितः, तथा अगन्धः = सुरभिदुरभिगन्धरहितः, अरस:-तिक्तादिरसरहितः, अस्पर्शः-कर्कशाधष्टविधस्पर्शरहितश्च धर्मास्तिकाय., " अरूवे" अरूपी-आकाररहितः " अजीवे " अजीव-जीवरहितः " सासए" शाश्वतः-द्रव्यतो नित्यः “ अवहिए" अवस्थितःमदेशैः " लोगदव्वे" लोक द्रव्यम् । लोकस्य पञ्चाऽस्तिकायरूपस्यांशभूतं द्रव्यमिति लोकद्रव्यम् “ से समासओ पंचविहे पन्नत्ते" स धर्मास्तिकायः समासतः संक्षेपतः, पञ्चविधः-पञ्चप्रकाधर्मास्तिकाय मे कितने वर्ण, कितने गंध, कितने रस, और कितने स्पर्श होते हैं। प्रभु ने इस पर यों कहा-(गोयमा!) हे गौतम । (अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे, अरूवी, अजीवे, सासए, अवहिए, लोगदव्वे ) धर्मास्तिकाय नील पीत आदि पांचों वर्गों से रहित है सुरभिदुरभिगंध से रहित है, तिक्तादि पांच प्रकार के रसों से रहित है कर्कश आदि आठ प्रकार के स्पर्श से रहित है। इसका कोई रूप नहीं है। यह अ. जीव-चैतन्य गुण से रहित है। द्रव्य की अपेक्षा यह (सासए) शाश्वत है। अर्थात् द्रव्य नित्य है । (अवट्टिए) अपने प्रदेशों से यह सदा एकसा रहता है-अर्थात् धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं-सों ये प्रदेश इसके कमती बढती नहीं होते हैं । (लोगदव्वे) पंचास्तिकायरूप लोक का यह द्रव्य अंशभूत है इसलिये इसे लोक द्रव्य कहा गया है । (से समासओ पंचविहे पण्णत्ते) यह धर्मास्तिकाय संक्षपसे पांच प्रकार का कहा
उत्तर-( अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे, अरूवी, अजीवे, सासए, अवट्टिए, लोगव्वे ) 3 गौतम ! यस्तिय ana, पानी, पापी माहि पांय गाथा રહિત હોય છે, તે સુગંધ અને દુર્ગ ધથી રહિત છે. તે ખાટો, ખારે, કડ આદિ પાંચ રસથી રહિત છે, તે કઠેર આદિ આઠ પ્રકારના સ્પર્શથી રહિત છે. તે અરૂપી છે, તે અજીવ ( ચૈતન્ય રહિત) છે. દ્રવ્યની અપેક્ષાએ તે શાશ્વત (नित्य) छे. ( अवदिए ) धर्मास्तियन अने प्रश। डाय छे. तेन ते प्रह. शाम पधारे। घटा था नथी, माटे तेने मवस्थित यो छ (लोगव्वे) પંચાસ્તિકાય રૂપ લેકનું તે અંશભૂત દ્રવ્ય છે. તેથી તેને લેકદ્રવ્ય કહેલ છે. (से समासओ पंचविहे पण्णत्ते ) ते धास्तियना सविसमा पांय २ छ,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨