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भगवती सूत्रे
यावद्रूपी जीवः शाश्वतः अवस्थितो लोकद्रव्यम् । स समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः तद् यथा द्रव्यतो यावत् - गुणतः, द्रव्यतः खलु जीवास्तिकायोऽनन्तानि जीव द्रव्याणि क्षेत्रतो लोकप्रमाणमात्रः कालतो न कदाचिन्नासीत् यावन्नित्यः भावतः पुनरवर्णः अगन्धः अरसः अस्पर्शः गुणतउपयोगगुणः, पुद्गलास्तिकायः खलु मदन्त! गुणवाला है । ( जीवथिकाए णं भंते । कइ वण्णे, कइ गंधे, कइ रसे, कह फासे ? ) हे भदन्त ! जवास्तिकाय कितने वर्णवाला है, कितने गंध बाला है, कितने रसवाला है और कितने स्पर्श वाला है ? ( गोयमा ! ) हे गौतम! ( अवण्णे जाव अरूवी ) जीवास्तिकाय वर्णरहित है यावत् वह अरूपीद्रव्य है ( जीवे सासए अवट्ठिए लोगदव्वे ) जीव है शाश्वत है, अवस्थित है, लोकद्रव्य है । ( से समासओ पंचविहे पण्णत्ते ) वह संक्षेप से पांच प्रकार का कहा गया है । ( तंजहा ) जैसे ( दव्वओ जाव गुणओ) द्रव्य की अपेक्षा जीवास्तिकाय यावत् गुण की अपेक्षा जीवा= स्तिकाय ( दव्बओ णं जीवस्थिकाए अनंताई जीवदव्वाई ) द्रव्य की अपेक्षा जीवास्तिकाय अनंत जीवद्रव्यरूप है । ( खेत्तओ लोगप्पमाणमेते ) क्षेत्र की अपेक्षा जीवास्तिकाय लोकप्रमाणमात्र है । ( कालओण कयाइ न आसी, जाव निच्चे) कालकी अपेक्षा जीवास्तिकाय भूतकाल में किसी भी समय में नहीं था ऐसा नहीं है यावत् वह नित्य है । ( भावओ पुणअवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे ) भाव की अपेक्षा जी
( जीवथिकाए ण भते ! कइवण्णे, कइ रसे, कइ फासे) हे लहन्त ! গু• સ્તિકાયને કેટલા વણુ, કેટલા ગંધ, કેટલા રસ અને કેટલાપ હાય છે? ( maar ! ) ☎ sîlah ! ( gavo la exat) waıkanıu agfiléaul सहने भइयो पर्यन्तना गुणवाणु होय छे. ( जीवे, सासए, अवट्ठिर लोगद्व्वे ) लवास्तिाय शेतनावाणु, शाश्वत, अवस्थित, सोउद्रव्य छे. ( से समासओ पंचविहे पण्णत्ते) ते सक्षिप्तमां पांच अरनुं छे. ( तंजहा) ते प्रअ या प्रभा छे- " दव्वओ जाव गुणओ " द्रव्यनी अपेक्षा मेथी सहने गुणुनीअपेक्षा पर्यन्तना तेना यांग अार छे. " दठवओ णं जीवत्थिकाए अनंताई जीवदव्वाई " द्रव्यनी अपेक्षा वास्तिय अनंत लवद्रव्य३५ छे " खेत्तओ लोगध्पमाणमेत्ते " क्षेत्रनी अपेक्षा वास्तिप्राय सो परिमित छे, " कालओ ण कयाइ न आसी, जाव निच्चे " अजनी अपेक्षा मे वास्तियनुं अस्तित्व भूतअजभां કોઇ પણ સમય ન હતું એવું બન્યું નથી, ત્યાંથી લઈને તે નિત્ય છે ત્યાં સુધીનું કથન ધર્માસ્તિકાય પ્રમાણે સમજવું. भावओ पुणे अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे ” लावनी अपेक्षाये भवास्तिय वर्षा, गंध, रस याने स्पर्शरद्धित
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨