________________
member
२९२
भगवतीखूचे प्रासादोऽवतंसकः अवतंसक इव शिरोभूषण इव प्रधानत्वात् इति प्रासादावतंसका प्रासादश्रेष्ठ इत्यर्थः । तादृश मासादस्य प्रमाणं दर्शयति “ अड्डा इज्जाइं जोयण सयाई उड्ढं उच्चत्तेणं " अर्धवृतीयानि योजनशतानि ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन “पणवीसं जोयणसयाई विक्खंभेण पञ्चविंशतिर्योजनशतानि विष्कंभेण 'पसायपण्णओ" अत्र खलु प्रासादपर्णको विज्ञेयः स चैवम् " अब्भुगयभुसिय पहसिए" अभ्युद्गत उच्छ्रितः प्रहसितः अभ्युद्गतम् अभ्रोद्गतम्वा यथा भवति-एवमुच्छ्रितः गगनचुम्बी इत्यर्थः यद्वा मकारस्यागमसिद्धत्वात्-अभ्युद्गतश्चासौ उच्छितश्चेति अभ्युद्गतोच्छूित अतिशय उच्च इत्यर्थः तथा-प्रहसितः कांतिनिकरपरिगततया पहसित इव प्रहसितः अथवा प्रभया सितः शुक्लः अथवा प्रभया सितः सम्बद्धः प्रकाशित इत्यर्थः भूमिभाग के ठीक बीच में एक बड़ाभारी प्रासादोक्तंसक-प्रासादों में सर्वोत्कृष्ट-उन्नत महल है। अवतंसक-शब्द का अर्थ मुकुट होता है। सो यह प्रासाद प्रधान होने के कारण अन्यप्रासादों के बीच में मुकुट के समान अथवा शिरोभूषण के समान है अतःप्रासादावतंसकरूप से इसे प्रकट किया गया है। इस प्रसाद का प्रमाण कितना है सो प्रकट किया जाता है-(अड्राइज्जाइं जोयणसयाई उडू उच्चत्तणं) यह प्रासाद दो सौ पचास २५० योजन उँचा है। (पणवीसं जोयणसयाई विक्खंभेणं) इसका विष्कंभ एकसौ पच्चीस १२५ योजन का है । (पासायवण्ण ओ) इस प्रासाद का वर्णक इस प्रकार से है-(अब्भुगयमूसियपहसिए ) यह प्रासाद इतना ऊँचा है कि इसने मानो अपनी उँचाई से आकाश को छू लिया है अर्थात् यह गगन चुंबी है कान्तिनिकर से व्याप्त होने के कारण ऐसा मालूम होता है कि मानो यह प्रासाद हस रहा है अथवा-यह अपनी निर्मल प्रभा से सित-सफेद है या प्रकाशित है । qथ्य मे घणे उत्तम भी आवे छे. ( अवत'सक ) पहने! म भुरट થાય છે. તે પ્રાસાદ (મહેલ ) શ્રેષ્ઠ હોવાથી બીજા પ્રાસાદેની વચ્ચે મુગટના જેમ-શિરોભૂમાણના જેમ-ભે છે. માટે તે મહેલ ને “પ્રાસાદવવંસક” કહેલ छ. हवे ते भडसन भा५ मतावामां आवे छे-(अडइज्जाइजोयणसयाई उडूढ उच्चत्तण) ते भडस २५० मिडिसी योन या छ. ( पणवीस जोयणसयाई विक्ख भेण) तेना वि. १२५ सपास यान छे. (पासाय वण्णओ) वे ते प्रासाई ( भडस ) न ४२वामां आवे छे ( अब्भुगयसियपहसिए) तेनी ઉંચાઈ એટલી બધી છે કે તે આકાશને સ્પર્શતા હોય તેમ લાગે છે કહે વાને ભાવાર્થ એ છે કે તે ગગનચુંબી છે. તે તેની નિર્મલ પ્રભાને કારણે स तथा प्रशित भाय छे. तेथी ते प्रासा स समान वागेछे-( मणि
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨