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भगवतीसूत्रे 'हन्त अत्थि' हन्त अस्ति, सर्वस्मिन्नेव ऋतौ दिवसे रात्रौ च सूक्ष्मोऽप्कायः सर्व कालं प्रपतत्येवेति समुदितार्थः। 'से भंते कि उड्डे पवडइ, अहे पवडइ, तिरिएपवडइ ?' तद् भदन्त! किम् अचे पतति, अधः पतति, तिर्यक् पतति? ऊर्च-वर्तुलवैताढयादौ, अधः-अधोलोकग्रामेषु, निर्यक्-तिर्यग्लोके । भगवानाह-'गोयमे' -त्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'उवि पवड़इ अहेवि पवडइ, तिरिएवि पवडई' ऊर्ध्वमपि प्रपतति, अधोऽपि प्रपतति, तिरश्चयपि प्रपतति, ऊर्ध्वलोकेपि, अधोलोकेऽपि, तिर्यग्लोकेऽपि सर्वत्र सर्वदा सूक्ष्माप्कायः प्रपततीति भावः।
ननु यदि रात्रौ दिवसे सर्वऋतुषु सर्वदैवाप्कायः प्रपतति तदा साधुभिः कस्मिन्नपि काले कुत्रापि कथमपि न गन्तव्यं, सर्वकालेऽप्कायविराधनामसंगादिति है कि सब समय सूक्ष्म जलकाय गिरता है क्या ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं कि-(हंता अत्थि) हां गिरता है। अर्थात् सभी ऋतुओं में रात और दिनमें सूक्ष्म अप्काय सब समय में गिरता ही रहता है । (से भंते ! किं उड़े पवडइ, अहे पवडइ, तिरिय पवडइ ?) हे भदन्त ! वह सूक्ष्म जलकाय क्या ऊँचे गिरता है, या नीचे गिरता है, या कि तिरछा गिरता है ? अर्थात-ऊँचे-वर्तुल वैताढय आदि में, नीचे-अधोलोक ग्रामों में और तिरछे-तिर्यग्लोक में पड़ता है क्या ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं कि-(गोयमा-उड्ढे वि पवडइ, अहे वि पवडइ, तिरिये वि पवडइ ) हे गौतम | वह सूक्ष्म अप्काय उँचे-चतुल वैताढय
आदि पर्वतों पर भी, नीचे-अधो लोकग्रामों में भी और तिरछे-तिर्यग्लोक में भी सदा गिरता है। ___शंका-यदि सूक्ष्म अप्काय रात्रि में दिन में, सर्व ऋतुओं में सदा ही गिरता रहता है तो फिर साधुजनोंको किसी भी समय में कहीं पर भी किसी भी तरह नहीं जाना चाहिये-क्यों कि ऐसा करने से सर्वत्र पोछ? त्त२-हंता अस्थि) ! ५ छ. गेटवे ॐ थी तुयोमा (४२) सक्षम अ५७य हमेशा ५७॥ ४ ४२ छ (से भंते ! किं उड्ढे पवडइ, अहे पवडइ, तिरिए पविडइ ?) 3 भगवन्! ते सूक्ष्म २३५४ाय शुअये ५ छ, કે નીચે પડે છે કે તિરછું પડે છે એટલે કે ઊંચે-વર્તુલ વૈતાઢય પર્વત વગે
भी नीये अधोटोभा तिरछु-तियोमा ५ छ ? उत्तर-(गोयमा ! उड्ढे पवडइ. अहे वि पवडइ, तिरिएषि पवडइ,) गीतम! ते सूक्ष्म साय ये -વલ વતાય વગેરે પર્વતમાં પણ હમેશાં પડે છે, નીચે અધેલકમાં પણ હમેશાં પડે છે અને તિર-તિર્યશ્લોકમાં પણ હંમેશાં પડે છે.
શકા–જે સૂક્ષ્મ અકાય રાતને દિવસ તમામ ઋતુઓમાં હમેશાં પડતું જ રહેતું હોય તે સાધુઓએ કોઈ પણ સ્થળે કોઈ પણ રીતે ક્યારેય
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨