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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श० १ उ०४ सू ५ छमस्थादीनां सिद्धिप्ररूपणम् ७१९ सर्वोऽपि पाठोऽत्र ग्राह्यः, कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव अंतं करिसु' यावदन्तमकार्षीदिति । केवलसंयमादिना न सिद्धो जातस्तत्र किं कारणमिति भावः । भगवान् प्राह 'गोयमा' इत्यादि। 'गोयमा' हे गौतम ! 'जे केइ अंतकरा' ये केऽपि अन्तकराः भवान्तकारिणः अन्तं भवान्तं कुर्वन्ति ये तेऽन्तकराः, अन्तकरास्तु दीर्घकालापेक्षया भवन्तीत्यत्राह-'अंतिमसरीरिया वा' अन्तिम शारीरिका वा, अन्तिम शरीरं विद्यते येषां तेऽन्तिम शरीरिका वा-चरमशरीरिण इत्यर्थः । 'जाव' यावत्यावत्करणात् सिझिसु सिज्झइ सिन्झिस्सइ' इत्यादि संग्राह्यम् । 'सबदुक्खाणं अंतं करेंसु वा' यावत् सर्वदुःखानामन्तमकार्षीद् वा ' करेंति वा ' कुर्वन्ति आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि केवल संयमादि से कोई भी छद्मस्थ सिद्ध नहीं हुआ है यावत् वह सब दुःखों का अंत करने वाला नहीं हुआ है। इस तरह प्रश्नोक्त सब पाठ यहां " यावत् अंतं अकार्षुः तक कहना चाहिये । गौतम के इस प्रश्न का तात्पर्य ऐसा है कि-तब केवल संयमादि से छद्मस्थ जो सिद्ध नहीं हुआ है उसमें कारण क्यो है ? तब प्रभु इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि (गोयमा) हे गौतम ! (जे केइ अंतकरा अंतिमसरीरिया वा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा सव्वे ते उप्पण्णणाणदंसणधरा अरहा जिणा केवली भवित्ता, तओ पच्छा सिझंति बुझंति, मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंत करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा) जो कोई अन्तकर हुए हैं, अन्तिमशरीरवाले हुए हैं, यावत् जिन्होंने समस्तदुःखों का अन्त करडाला है, वर्तमान में जो कर रहे हैं, आगे भी जो करेंगे, जाव अंतं करिसु) हे भगवन् ! २५ मेg At २णे ४ो छ। ॐ मात्र सयम વગેરેથી કોઈપણ છાસ્થ સિદ્ધ થયે નથી, બુદ્ધ થયું નથી મુક્ત થયા નથી, પરિનિવૃત થયો નથી અને સમસ્ત દુઃખોને અંતકર્તા થયા નથી ? ગૌતમના આ પ્રશ્નનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે. માત્ર સંયમ વગેરે કારણોથી કઈ પણ છદ્મસ્થ
व सिद्ध५६ पाभ्यो नथी तेनुं ॥२१ शुछ ? उत्त२-(गोयमा) गौतम! (जे केइ अंतकरा अंतिमसरीरिया वा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करे सु वा, करेंति वा, करिस्संति वा सव्वे ते उप्पण्णनाणदंसणधरा अरहा जिणा केवली भवित्ता, तओ पच्छा सिझंति बुझंति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति, सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा,)
रे अन्त४२ च्या छे, अन्तिम. शरीरा॥ यया छ, “ यावत् ” भये સમસ્ત દુખોને અંત કરી નાખે છે, વર્તમાનકાળમાં જેઓ તેનો અંત કરી રહ્યા છે અને ભવિષ્યમાં પણ જેઓ તેને અંત કરશે, તેઓ બધાં ઉત્પન્ન કેવલ જ્ઞાન અને
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧