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प्रमेश्वन्द्रि काठोका श०१ उ० ३ सू० ११ श्रमणविषयेतद्वेदनादिस्वरूपम् ६३५ कांक्षामोहनीयं कर्म वेदयन्ति किम् ? । कर्मवेदनं तु सर्वेषां सममेवेत्याशयेनाह भग वान्-'हंता' इत्यादि । 'हंता अत्थि' हन्त अस्ति, अत्र 'अस्ति'-शब्देन पूर्वोक्तं प्रश्नस्त्रं वाच्यम् , तथाहि-'हंता अस्थि गोयमा ! समणा वि निग्गथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेएंति' इति । 'हन्त' इति स्वीकारे, अस्ति-विद्यते, हे गौतम ! अयं पक्षो यदुत श्रमणा अपि निर्ग्रन्थाः कांक्षामोहनीयं कम वेदयन्ति । श्रमणनिम्रन्थानामपि कांक्षामोहनीयकर्मवेदनं भवत्येवेत्यर्थः । पुनः प्रश्नयति-'कह णं भंते' इत्यादि । 'कह णं' कथं खलु केन प्रकारेण भंते' हे भदन्त ! 'समणा णिग्गंथा' श्रमणा निग्रन्थाः 'कंखामोहणिज्ज कम्म वेएंति' कांक्षामोहनीयं कर्म वेदयन्ति । किन्तु महाव्रतधारी मुनि ही होते हैं। भगवान ने जो इस प्रश्न के उत्तर में "हंता गोयमा!" ऐसा कहा है उसका कारण यह है कि कर्म का वेदन समस्तसंसारी जीवों को सदा होता ही रहता है। यहाँ जो " अत्थि" ऐसा कहा है उससे यह बात यहां प्रकट की गई है कि "अस्ति" इस शब्द से पूर्वोक्त प्रश्नमूत्र यहां कहना चाहिये । वह इस प्रकार से-"हंता अस्थि गोयमा ! समणा वि णिग्गंथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेदेति" हां गौतम ! निर्ग्रन्थ श्रमण भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं । “ हन्त" यह शब्द स्वीकार अर्थ में और " अस्ति" "विद्यते" इस अर्थ में है इसलिए निर्ग्रन्थ श्रमणों के भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन होता है-ऐसा इसका भाव है। पुनः गौतम प्रभु से पूछते हैं कि हे भदन्त ! जब निर्ग्रन्थ श्रमणों के भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन होता है तो वे उसे किस तरह से वेदन करते हैं-यही ? बात વ્રતધારી મુનિરાજે જ એવા નિર્ચથ હોય છે. તેથી અહીં જૈન સાધુઓ સંબંધી જ હકીકત જાણવી.
लगवाने तेन नाममा २ " हंता गोयमा" से ४थन ज्यु छ तेतुं કારણ એ છે કે તમામ સંસારી જીવોને હંમેશાં કર્મનું વેદન કરવું જ પડતું હોય છે સાધુ પણ સિદ્ધની અપેક્ષાએ કર્મસહિત હોવાથી સંસારી ગણાય छ. मडिरे “ अस्थि " " अस्ति" ५४ ४ छे तेथी पूरित प्रश्नोत्तर सूत्र मी ४i मे. ते ॥ प्रमाणे छे-“हता अस्थि गोयमा ! समणा वि णिग्गथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेएंति ,, डी, गौतम ! निथ श्रभो। ५५ siक्षाभानीय भर्नु वेहन ४२ छे. “हता " ०५४ स्वी४२॥ २ मा भने "अस्ति” “ई” न अ भा १५रायो छे. निथ श्रमणाने पy xiक्षाभानीय કર્મનું વદન કરવું પડે છે. એ તેને ભાવ છે. વળી ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને પૂછે છે કે “હે પૂજ્ય! જે નિગ્રંથ શ્રમણને પણ કાલાહનીય કર્મનું
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧