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भगवती टीका-'अस्थि णं भंते' अस्ति खलु भदन्त ! ' सणावि' श्रमणा अपि= महाघ्रतधारिणोऽपि, अत्र 'अपि' शब्दः महाव्रतधारिणां जिनागमावदातबुद्धीनां कांक्षामोहनीयकर्मवेदनसंभावनायामाश्चर्यद्योतकः। श्रमणास्तु शाक्यभिक्षवोऽप्युच्यन्तेऽतस्तम्भिराकरणाय प्राह-'निग्गंथा'इति, 'निग्गंथा' निर्ग्रन्थाः-नि:निष्क्रान्ता प्रन्यात् बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहाद् ये ते तथा, ते 'खामोहणिज्ज कम्मं बेएंति'
टीकार्थ-श्रमण-महाव्रतधारी निर्ग्रन्थ भी क्या कांक्षामोहनीय कर्मका वेदन करते हैं ? यहां ऐसा प्रश्न है, यही बात " अत्थि णं भंते । समणा वि णिग्गंथा" इत्यादि सूत्र द्वारा प्रकट की गई है, श्रमण शब्द से महाव्रतधारी मुनि ही यहां लिये गये हैं । “अपि" शब्द यहां आश्चर्य योतक है, और वह इस प्रकार से है कि जो महाव्रतधारी साधुजन होते हैं, उनकी बुद्धि जिनागम के अभ्यास से निर्मल रहा करती है, अतः ऐसे महाव्रतधारियों को भी कांक्षामोहनीय के वेदन की संभावना है, इस तरह जब कहा जाता है तो सुननेवालों को भी आश्चर्य होता है। श्रमण शब्द शाक्यभिक्षुओं का भी वाचक है, अतः वे यहां श्रमण शब्द से परिगृहीत नहीं हुए हैं किन्तु महाव्रतधारी मुनि ही यहां श्रमण शब्द से वाच्यार्थरूप से अभीष्ट हुए हैं, यह बात प्रकट करने के लिये-अर्थात् उन शाक्यभिक्षुओं का निराकरण करने के लिये "निग्गंथा" यह पद दिया गया है । बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से जो रहित होते हैं वे, निर्गन्ध हैं । ऐसे निर्ग्रन्थ शाक्यभिक्षु नहीं होते हैं। ____ -गौतभस्वामी भापीर प्रभुने पूछे थे-“ अस्थि णं भंते ! समणा वि णिग्गंधा" छत्यादि. महाव्रतधारी श्रम नि याने ५५ शुक्षांभाहनीय કર્મનું વેદન કરવું પડે છે? અહીં “ શ્રમણ” પદ વડે મહાવ્રતધારી મુનિવરે अ ४२वाना छ. "अपि” ५४ माश्चय ४शछ ते २मा प्रमाणे छ-महानतयारी સાધુજનેની બુદ્ધિ તો જિનાગમના અભ્યાસથી નિર્મળ જ રહ્યા કરતી હોય, એવા મહાવ્રતધારી સાધુઓને પણ કાંક્ષામહનીય કર્મના વેદનની સંભાવના છે, એવું કહેવામાં આવે ત્યારે સાંભળનારને એક વખત તે જરૂર આશ્ચર્ય થયા વગર રહે જ નહિ. બૌદ્ધ ભિક્ષુઓને પણ શ્રમણ કહે છે. અહીં “શ્રમણ” પદથી બૌદ્ધ ભિક્ષુઓ લેવાના નથી પણ મહાવ્રતધારી મુનિવરે જ “શ્રમણ” પદથી લેવાના છે. એ વાતને બતાવવાને માટે જ સૂત્રમાં શ્રમણની સાથે “निग्गंथा" ५४ भूज्यु छ. पाह्य भने मान्यत२ परियडथी २ २डित हाय છે તેમને નિગ્રંથ કહે છે, બૌદ્ધ ભિક્ષુઓ એવા નિગ્રંથ હોતા નથી પણ મહા
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧