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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श० १ उ. ३ सू० ११ श्रमणविषये तदेवनादिस्वरूपम् ६३३ निर्ग्रन्थाः कांक्षामोहनीय कर्म वेदयन्ति । तद् नूनं भदन्त! तदेव सत्यम् , निःशङ्क यद् जिनः प्रवेदितम् , हंत गौतम ! तदेव सत्यम् निःशङ्कम् , एवं यावत् पुरुषकारपराक्रम इति वा । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति ? ॥सू०११॥ ॥इति प्रथमशतके तृतीयादेशकः॥ मेयसमावन्ना, कलुससमावना, एवं खलु समणा णिग्गंथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेएंति ) हे गौतम ! उन२ इन कहे गये कारणों से जैसेज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर. प्रावचनिकान्तर, कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमणान्तर, इनसे शंकावाले, कांक्षावाले विचिकित्सावाले, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न होकर श्रमण निग्रन्थ कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। (से नृणं भंते ! तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ?) हे भदन्त ! क्या वही सत्य और निःशंक है जो जिनेन्द्रदेवोंने प्रवेदित किया है ? (हंता गोयमा! तमेव सच्चं नीसंकं एवं जाव पुरिसकार परकमेइ वा ) हां गौतम ! वही सत्य और निःशंक है जो जिनेन्द्रदेवोंने कहा है, यावत् पुरुषकारपराक्रम है। (सेवं भंते ! सेवं भंते !) हे भदन्त ! वह इसी तरह से है २ (त्ति) इस प्रकार कहकर गौतमस्वामी तप और संयम से आत्मा को भावित करते हुए रहने लगे ॥ सू० ११ ॥ वितिगिच्छिया, भेयसमावन्ना, कलुससमावन्ना एवं खलु समणा णिग्गंथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेएंसि ) 3 गौतम ! नीय विखi ४१२९ वा ज्ञानान्तर, ४शनान्तर, यारित्रान्तर, लिन्त२, प्रत्या त२, प्रापयनि-त२, ४ान्तर, માર્ગાન્તર, મતાન્તર, ભંગાન્તર, નયાન્તર, નિયમાન્તર અને પ્રમાણાન્તર વગેરે કારણોને લીધે શ્રમણ નિત્યે શંકાવાળા, કાંક્ષાવાળા વિચિકિત્સાવાળા, ભેદસમાપન્ન भने ४ापसमापन्न xiक्षामोडनीय भनु वहन ४२ छ ( से नूण भंते ! तमेव सच्चं नीसंकं ज जिणेहि पवेइय? 3 पून्य ! शु मे सत्य सन निःश छ है जिनेन्द्र देवासे प्रवहित यु छ ? (हता गोयमा ! तमेव सच्चं नीसंक एवं जाव पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा ) , गौतम ! मे सत्य भने નિઃશંક છે કે જે જિનેન્દ્ર દેએ કહેલ છે. ત્યાંથી લઈને પુરુષાકાર પરાકમ છે त्यां सुधार्नु ४थन अड ४२७, (सेवं भंते ! सेवं भंते !) पून्य ! २. प्रमाणे જ છે એ પ્રમાણે જ છે (ત્તિ) આ પ્રમાણે કહીને તપ અને સંયમથી આત્માને ભવિત કરતા ગૌતમસ્વામી રહેવા લાગ્યા. સૂ૦૧૧ भ० ८० શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧
SR No.006315
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages879
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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