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________________ ६३० भगवती सूत्रे अप्पणा चेव निज्जरेइ अप्पणाचेव गरहई' इत्यादि सूत्रस्य 'पुरिसकारपरक्कमेइ वा' पुरुषकारपराक्रम इति वा, एतत्पर्यन्तमिहापि पठनीयमिति । 'एवं जाव चउरिदियाणं' एवं यावत् चतुरिन्द्रियाणाम् एवम् अनेन पृथिवीकायिकोक्तप्रकारेण यावच्छन्दग्राह्याणि-अपूतेजोवायुवनस्पतिकायिकानामालापकाः, तथा-द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियाणामालापकाश्च विज्ञेयाः, तथा 'चउरिदियाणं चतुरिन्द्रियाणामप्यालापका वाच्याः, तथा-अनयैव रीत्या 'पंचिदियतिरिक्खजोणिया' पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः 'जाव वेमाणिया' यावद् वैमानिकाः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानारभ्य वैमानिकपर्यन्ताः 'जहा ओहिया' यथा औधिकाः, येन प्रकारेण औधिकजीवानां वक्तव्यता तथात्रापि विज्ञेयेति । सू०१०॥ ननु एतावता प्रबन्धेन सर्वेषामेव जीवानां कांक्षामोहनीयकर्मणो वेदनं भवतीति प्रतिपादितम् , तथा च श्रमणा निग्रन्था अपि जोवमध्यनिविष्टा अत निज्जरेइ, अप्पणा चेव गरहइ" इत्यादि सूत्रके "पुरिसकारपरक्कमेइ वा" यहां तक के पाठ तक कहना चाहिये । “ एवं जाव चरिंदियाणं " इस सूत्र पाठ से यह बतलाया जा रहा है कि जिस प्रकार से पृथिवीकायिक जीवों में प्रकरण कहा गया है उसी तरह से अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकायिक जीवों के आलापक कहना चाहिये। तथा-दीन्द्रिय और तीन इन्द्रिय जीवों के आलापक कहना चाहिये । और ये आलापक इसी तरहसे चतुरिन्द्रिय जीवों के भी जानना चाहिये। तथा इसी रीति से पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों से लेकर वैमानिकदेवों तक जिस प्रकारसे औधिक जीवोंकी वक्तव्यता है उसी प्रकार की वक्तव्यता यहां पर भी जाननी चाहिये। उस वक्तव्यता में केवल "औधिक जीव" के बदले उन२ जीवों का अभिलाप करना चाहिये ।। सू० १०॥ निज्जरेइ, अप्पणो चेव गरहइ” त्यादि सूत्रानो “ पुरिसकारपरक्कमेइ वा " सुधी ५४ ४ . “ एवं जाव चउरिंदियाणं” सूत्रपाथी मे સૂચન કર્યું છે કે પૃથ્વીકાયિક જીના સંબંધમાં જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે તેવું જ કથન અપકાય, તેજસ્કાય, વાયુકાય અને વનસ્પતિકાયના જીના સંબંધમાં પણ કહેવું જોઈએ. એજ પ્રકારનું કથન કીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય અને ચતુરિન્દ્રિય ના સંબંધમાં પણ કહેવું જોઈએ. તથા પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ નિક જીથી લઈને વૈમાનિક દેવ સુધીના જીવનના સંબંધમાં પણ ઔધિક જીના વર્ણન પ્રમાણે જ વર્ણન કરવું. પરંતુ વર્ણનમાં પ્રશ્નસૂત્ર તથા ઉત્તરસૂત્ર ઔધિક ને બદલે તે જીવને અનુલક્ષીને કહેવા જોઈએ. સૂ.૧૦ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧
SR No.006315
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages879
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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