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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. १ उ. ३ सू० ३ काङ्खामोहनीयकर्मनिरूपणम् ५६३ किमपि कारणमस्तीति अनुमेयम् । प्रतिपादितस्य पुनरपि प्रतिपादने एतानि कारणानि तथाहि-प्रतिषेधः, अनुज्ञा, अथवा एकप्रकारकहेतुकथनम् । अर्थात् क्वचित्पूर्वोक्तस्य प्रतिषेधः क्रियते, अथवा पूर्वप्रतिपादिते अनुज्ञा, तथा पूर्वोक्तार्थनिर्णये हेतुविशेषप्रतिपादनं भवतीति गाथाभिप्रायः। __ अथ कांक्षामोहनीयकर्मवेदने कारणमाह-'कह ण' इत्यादि । 'कह गंभंते जीवा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति' कथं खलु भदन्त ! जीवाः कांक्षामोहनीय कर्म वेदयन्ति ? इति प्रश्नः। भगवानाह–' गोयमा ' हे गौतम ! 'तेहिं तेहिं' तैस्तैः दर्शनान्तरश्रवणकुतीर्थिकसंसर्गादिरूपकारणविशेषैर्लोकप्रसिद्धः 'कारणेहि' शङ्कादिकारणैः 'संकिया' शङ्किताः-जीवादितत्त्वेषु 'अस्ति न वे'ति' संशयपुनः कहें तो उसके कहने में कोई न कोई कारण है, ऐसा अनुमान करना चाहिये । प्रतिपादित विषयके पुनः प्रतिपादन करने में ये कारण होते हैं -प्रतिषेध, अनुज्ञा, अथवा एक प्रकार के हेतु का कथन । अर्थात् पूर्व की बात को प्रतिषेध करने के लिये, पूर्व की बात में अनुमति देने के लिये या पूर्व की बात के निर्णयमें कोई विशेषको कहने के लिये एक बार कही हुई बात पुनः कहने में आती है। ऐसा इस गाथा का अभिप्राय है। __ अब सूत्रकार कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन में कारण कहते हैं-'कह णं' इत्यादि, हे भदन्त ! जीव कांक्षामोहनीयकर्म का वेदन कैसे करते हैं ? तब प्रभु इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि हे गौतम ! " तेहिं तेहिं" इत्यादि उन उन लोकप्रसिद्ध दर्शनान्तरों के श्रवणरूप तथा कुतीर्थिकोंके संसर्ग आदिरूप कारणविशेषोंसे जन्यशंकादि कारणोंसे संकिया' -जीवादिक तत्वों में वे शंकित हो जाते हैं-ये प्रतिपादित किये हुए जीवादि तत्व हैं કાંઈને કોઈ કારણ છે, એમ અનુમાન કરવું જોઈએ. પ્રતિપાદિત વિષયનું ફરીથી પ્રતિપાદન કરવાના કારણે આ પ્રમાણે હોય છે–પ્રતિષેધ, અનુજ્ઞા અથવા એક પ્રકારના હેતુનું કથન. એટલે કે આગળની હકીક્તને પ્રતિષેધ (નિષેધ) કરવા માટે, આગળની વાતમાં અનુમતિ દેવાને માટે, અથવા તે આગળની વાતના નિર્ણયમાં કઈ વિશેષ કારણનું કથન કરવા માટે એક વાર કહેલી વાત ફરીથી કહેવામાં આવે છે, એવો આ ગાથાને ભાવ છે. હવે સૂત્રકાર કાંક્ષાહનીય भना वेहनतु ॥२९१ ४ छ-" कह णं" त्यादि. " orय! वो xiक्षामोडनीय भनु वेहन वी शते ४२ छ ? त्यारे ते ४११५ ३३ प्रभु ४ छ 3-3 गौतम ! “ तेहिं तेहिं " त्याहि. ते ते લેકપ્રસિદ્ધ અન્ય દર્શનના શ્રવણરૂપ તથા કુતીર્થિકોના સંસર્ગરૂપ કારણ વિશેથી उत्पन्न थयेट शाहि साथी" संकिया "-4 विषयोमा भने । શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧
SR No.006315
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages879
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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