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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श.१ उ० २ सू० १२ अन्तक्रियानिरूपणम् ४९९ निकसंसारसंस्थानकालोऽनंतगुणः, देवापेक्षया तिर्यग्योनिकसंसारसंस्थानकालोऽनन्तगुणाधिको भवतीति ॥सू०११॥
अथ अन्तक्रिया (मोक्षविचारः) प्ररूप्यतेउक्तो जीवस्य संसारसंस्थानकालः, साम्पतं तस्यान्तक्रियामाह-'जीवेणं भंते' इत्यादि।
मूलम्-जीवे णं भंते अंतकिरियं करेजा ? गोयमा ! अत्थेगइए करेजा,अत्थेगइए नोकरेजा, अंतकिरियापयं नेयध्वम् ॥१२॥ __ छाया-जीवो भदन्त अन्तक्रियां कुर्यात् ?, गौतम ! अस्त्येककः कुर्यात् , अस्त्येकको न कुर्यात् अन्तक्रियापदं ज्ञातव्यमिति ।मु०१२॥ संसारसंचिढणकाले अणंतगुणे" तिर्यञ्चयोनिवाले जीवोंका संसारसंस्थानकाल अनन्तगुणा अधिक है ॥ सू० ११॥
अंतक्रिया (मोक्ष) विचार यह जीवका संसारसंस्थानकाल कहा, अब उसकी अन्तक्रिया कहते हैं। 'जीवेणं भंते ! अंतकिरियं करेज्जा' इत्यादि।
(जीवेणं भंते अंतकिरियं करेज्जा ?) हे भदन्त ! जीव अंतक्रिया करता है क्या ? ( गोयमा) हे गौतम! ( अस्थेगइए करेज्जा) हां, कोई जीव करता है और (अत्थेगइए नो करेज्जा ) कोई जीव नहीं करता है। (अंतकिरिया पयं नेयवं) इस प्रश्न का विस्तार पूर्वक उत्तर जानने के लिये प्रज्ञापनासूत्र का "अंतक्रिया" नामका वीसवाँ पद देखना चाहिये।
टीकार्थ-" अन्तक्रिया " का तात्पर्य है समस्तकर्मों को अन्त" तिरिक्खजोणियसंसारसंचिढणकाले अणंतगुणे" तिय 4 योनि योनी સંસારસંસ્થાનકાળ અનંતગણું વધારે છે. તે સૂ૦ ૧૧
सन्तठिया (मोक्ष) वियार જીવને સંસારસંસ્થાનકાળ કહે, હવે તેની અંતક્રિયા કહે છે– " जीवेणं भंते ! अंतकिरियं करेज्जा" इत्यादि ।
(जीवेणं भंते! अंतकिरियं करेज्जा ? ) भून्य ! शुं ०१ मतठिया अरेछ? (गोयमा!) हु गौतम! (अत्थेगइए करेज्जा अत्थेगइए नो करेज्जा) डा ४१ ४२ छ भने ४२ता नथी. (अंतकिरियापयं नेयव्वं) मा प्रश्न विस्तारथी मथ समन्वा माटे प्रज्ञापनासूत्रनु “अंतक्रिया" નામનું વસમું પદ જેવું.
--" अन्तक्रिया " मेटले समस्त नि! Ka (IN) ४२॥२॥
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧