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भगवतीसूत्रे
'यस्यास्ति' इति पदस्यात्र सम्बन्धो योजनीयः। तथा च यस्यास्तीतिपदसंबन्धात् यस्य शुक्ललेश्या विद्यते तस्यैवात्रदण्डके पाठः पठनीय इत्यर्थों भवति, अत इह प्रकरणे पंचेन्द्रियतियञ्चो मनुष्याः वैमानिकाश्चाध्येतव्याः । नारकादीनामत्र पाठो न वाच्यः, यतो नारकभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्केषु, तथा वैमानिकानां मध्ये सौधर्मेशानसनत्कुमारमहेन्द्रब्रह्मदेवलोकेषु च शुक्ललेश्याया अभावो वर्त्तत । 'कण्हलेस्साणं नीललेस्साणंपि एको गमो' कृष्णलेश्यानां नीललेश्यानामपि एको गमः कृष्णनीललेश्यावतोरपि औधिकरूप एक एव गम इति । सामान्य निरूप्य योऽशो विलक्षणस्तमाह-' नवरं वेयणाए ' त्ति-नवरं वेदनायामिति, वेदनासूत्रे वैलक्षण्यं वालों का सूत्र है। तथा " जस्स अत्थि" इस आगे आने वाले पदका संबंध से जिसके शुक्ललेश्या है उसका ही इस दण्डक में पाठ पढना चाहिये, ऐसा अर्थ हो जाता है । इस कारण इस प्रकरण में पंचेन्द्रिय तिर्यच, मनुष्य और वैमानिक देव तो कहना चाहिये, परन्तु नारकादि नहीं। क्योंकि नारक, भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क इनमें नथा वैमानिकों के बीच में सौधर्म ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र ब्रह्म इन देवलोकों में शुक्ललेश्या का अभाव है। · कण्हलेस्साणं नील लेस्साणंपिएको गमो' अर्थात् कृष्ण लेश्यावालों का और नील लेश्यावालों का भी औधिक रूप एक सा ही पाठ है। इस प्रकार सामान्य अंश का प्रतिवाद न कर के जो अंश विलक्षण है-अर्थात् सामान्य अंशकी अपेक्षा दोनों के पाठ में अभिन्नता होने पर भी जिस अंश की अपेक्षा से इन में भेद है-वही भेद "नवरं वेयणाए" वेदना में भेद है-इस पद द्वारा प्रकट किया जारहा है। " जस्स अस्थि" माण मावना२ पहना था देने शुसवेश्या छ तेन। પણ આ દંડકમાં જ પાઠ કહેવું જોઈએ એવો ભાવ અહિં સમજે. આ કારણે આ પ્રકરણમાં પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ, મનુષ્ય અને વૈમાનિક, દેવોને અધિકાર કહેવો જોઈએ. પણ નારકાદિ કહેવા જોઈએ નહીં, કારણ કે નારક, ભવનપતિ, વ્યંતર અને તિષીમાં, તથા વૈમાનિકેમાંના સુધર્મ, ઈશાન, સનસ્કુમાર, મહેન્દ્ર, અને બ્રહ્મ દેવલોકમાં શુકલેશ્યાને અભાવ હોય છે. " कण्हलेस्साणं नीललेस्साणं पि एको गमो” 222 वेश्यावानी मने નીલલેશ્યાવાળાને પણ ઔધિકરૂપે એક સરખો જ સૂત્રપાઠ જણ આ રીતે સામાન્ય અંશનું પ્રતિપાદન કરીને જે અંશ વિવેક્ષણ છે-એટલે કે સામાન્ય અંશની અપેક્ષાએ બન્નેના સૂત્રપાઠમાં ભેદ ન હોવા છતાં પણ જે અંશની अपेक्षा तमनामा से डेसो छे ते " नवरं वेयणाए" "वहनामा लेह छ."
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧