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________________ भगवतीसूत्रे स्वकीय-स्वकीय सीमाऽनुल्लङ्घनेन व्याप्ताः ! 'विइण्णा' विकीर्णाः=तैरेव देवैः स्वावाससीमोल्लङ्घनेन व्याप्ताः । 'उवत्थडा' उपस्तृताः अनवरतक्रीडासक्तैरुपर्युपरि छादिताः। 'संथडा' संस्तृताः = अनवरतक्रीडासक्तैरन्योन्यस्पर्धया समन्ततः चलद्भिः आच्छादिताः 'फुडा' स्पृष्टाः-शयनासनपरिभोगादिभिः परिभुक्ताः, देवदेवीबाहुल्येन परस्परं संघट्टिता वा, यद्वा-स्फुटाः = सप्रकाशा व्यन्तरदेवदेवीसमूहकिरणैर्विनष्टान्धकाराः । ' अवगाढगाढा ' प्राकृतत्वात्पूर्वापरशब्द व्यत्ययस्तेन 'गाढाऽवगाढाः' इतिच्छाया, तत्र-गाढम् अतिशयेन अवगाढा सर्वक्रीडास्थानपरिभोग प्रणिहितमानसैरधोऽपि व्याप्ताः । 'सिरीए' श्रिया= अपने २ आवासस्थान की मर्यादाको उल्लंघन नहीं करके देवों और देवियों के समूह से (विइण्णा) विकीर्ण हुए अर्थात् अपने २ आवासस्थान की सीमा को उल्लंघन करके देवों और देवियों के समूह से अधिष्ठित हुए (उवत्थडा) उपस्तीर्ण हुए-निरन्तर क्रीडा करने में निरत बने हुए देवों और देवियों के समूह से नीचे ऊंचे-ऊपरा ऊपर-आच्छादित हुए (संथडा ) संस्तृत हुए-एक दूसरे की स्पर्धा से क्रीडा करने में आसक्त बने हुए तथा चारों तरफ से चलते हुए देवों और देवियों के समूहसे आच्छादित हुए, (फुडा) शयन, आसन आदिरूप परिभोगोंसे भोगे गये, अथवा देवों और देवियों की बहुलता से युक्त हुए, अथवा व्यन्तर देव और देवियों के समुदाय की कान्तिरूप किरणों से जहाँ का अन्धकार नष्ट हो गया है इस कारण प्रकाश से युक्त हुए (ओगाढगाढा) अतिशय समस्तक्रीडास्थानों में परिभोग करने के निमित्त मनતિપિતાનાં આવાસ સ્થાનની મર્યાદાનું ઉલ્લંઘન કર્યા વિના દેવ દેવીઓના सभडथी व्यास थयेस, (विइण्णा) विहीण थये। मेटले पात पोताना આવાસ સ્થાનની સીમાનું ઉલ્લંઘન કરીને દેવ અને દેવીઓના સમૂહથી मधिष्ठित येत, ( उवत्थडा) S५स्ता थयेस-निरत२ जी. ४२वाम दीन थये। हे भने वामान समूडथी ५२॥ ७५२ सा२हित येai, (संथडा) સંસ્કૃત-એક બીજાની સ્પર્ધાથી કીડા કરવામાં આસક્ત બનેલા તથા ચારે त२५थी अ१२ १४१२ ४२di व वीमाना समूडथी छाहित थयेसi (फुडा) શયન. આસન આદિ પરિભેગે વડે ભેગવાતાં, અથવા દેવ અને દેવીઓની બહુલતાથી યુક્ત, અથવા વ્યન્તર દેવ અને દેવીઓના સમુદાયની કાન્તિરૂપ કિરણે વડે જ્યાંને અંધકાર નષ્ટ થઈ જવાને કારણે પ્રકાશથી યુક્ત બનેલાં, (ओगाढगाढा) समस्त जी. स्थानोमा परिसा ४२वानी छावा वहवामाथी શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧
SR No.006315
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages879
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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