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________________ भगवतीसूत्रे दुःखानामन्तं करोति प्रश्नः । उत्तरमाह-'गोयमा' हे गौतम ! ' णो इणढे समडे' नायमर्यः समर्थः, असंहतानगारस्य सिद्धिगमनं न भवतीति भावः । पुनः पृच्छति 'से केणद्वेणं' तत्केनार्थेन केन कारणेन 'जाव नो सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ' यावत् नो सर्वःदुखानामन्तं करोति । यावच्छब्देन-'भंते एवं बुच्चइ असंवुडेणं अणगारे नो सिज्झइ नो बुज्झइ नो मुच्चइ नो परिनिव्वाइ" इति संग्राह्यम् । असंतृतस्य मोक्षाभावे कारणमाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'असंवुडे अणगारे' असंतृतोऽनगारः 'आउयवज्जाओ' आयुर्वर्जाः, एकस्मिन् भवे सकृदेवाऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रकाले एवायुषो शारीरिक, मानसिक दुःखों का अन्त करनेवाला होता है ? इस तरह ये प्रश्न हैं । तब प्रभुने इनका उत्तर क्या दिया सो वह इस प्रकार से है-प्रभु कहते हैं कि हे गौतम ! " णो इणटे समढे" नायमर्थः समर्थः, अर्थात्-असंवृतअनगार सिद्धगतिमें गमन करनेवाला नहीं होता है। पुन: प्रभुसे पूछा गया कि हे भदन्त ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि असंवृत अनगार यावत् समस्त दुःखों का अन्त नहीं करता है यहां यावत् शब्दसे " भंते ! एवं वुच्चइ असंघुडे गं अणगारे णो सिज्झइ, नो बुज्झइ, नो मुच्चइ नो परिनिव्वाइ" इस पाठका संग्रह हुआ है। असंवृतमुनि को मुक्ति की प्राप्ति क्यों नहीं होती है इसमें कारण कहते हुए प्रभु कहते हैं कि हे गौतम ! असंवृत जो अनगार है वह पहले अशुभतर परिणाम के कथंचित् अभाव से कर्म प्रकृतियों का बंध शिथिल रूपमें किया करता था अब वही उन प्रकृतियों का बंध गाढरूप से करने लगता है-तात्पर्य कहने का यह है कि एक भवमें एक ही बार ભગવાને તે પ્રશ્નોને આ પ્રમાણે જવાબ આપે છે " गोयमा ! णो इणढे समटे" - " नायमर्थः समर्थः " 3 गौतम ! असવૃત અણગાર સિદ્ધિપદ પ્રાપ્ત કરતા નથી. ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! આપ એવું શા કારણે કહો છે કે અસંવૃત અણગાર સિદ્ધ થતા નથી ત્યાંથી સમસ્ત દુઃખને નાશ કરતા નથી. ત્યાં સુધીનું કથન અહીં 'यावत' ५४थी अड ४२वार्नु छ. मेटले “भंते! एवं वुच्चइ असंवुडेणं अण. गारे णो सिज्झड, नो बुज्झइ, नो मुच्चइ, नो परिनिव्वाइ” २॥ पानी तमा 'यावत' पहथी समावेश ४२वानी छ. २मस वृत भुनिने ॥ २णे भुरित प्रात થતી નથી તે સમજાવવા માટે ભગવાન કહે છે કે “ હે ગૌતમ! અસંવૃત અણુગાર પહેલાં અશુભ પરિણામને કંઈક અભાવને લીધે કર્મપ્રકૃતિને બંધ શિવરૂપે બાંધ્યા કરતું હતું. હવે એજ પ્રકૃતિને બંધ તે ગાઢરૂપે બાંધવા માંડે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે એક ભવમાં એક જ વાર માત્ર અન્ત શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧
SR No.006315
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages879
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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