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________________ भगवतीसूत्रे ध्यानकोष्ठोपगतः-ध्यानं कोष्ठ इव ध्यानकोष्ठस्तमुपगतः, यथा कोष्ठगतं धान्यं विकीर्ण न भवति तथैव ध्यानगता इन्द्रियान्तःकरणवृत्तयो वहिन यान्तीति भावः, नियन्त्रितचित्तवृत्तिमानित्यर्थः, 'संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ' संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति ॥ सू०७॥ मूलम्-तएणं से भगवं गोयमे जायसड़े जायसंसए जायकोउहल्ले, उप्पन्नसड्डे उप्पन्नसंसए उप्पन्नकोउहल्ले, संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोउहल्ले, समुप्पन्नसड्डे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नकोउहल्लेउट्ठाए उद्देइ, उहाए उहित्ता जेणेव समणेभगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता णच्चासन्ने णाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे आभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी ॥ सू० ॥८॥ __छाया-ततः खलु स भगवान् गौतमः जातश्रद्धः जातसंशयः जातकुतूहलः, इनकी न ऊपर की ओर थी न तिरछी थी । “ध्यानकोष्ठोपगतः" पद यह बताता है कि जिस प्रकार कोष्ठ-कोठीगत धान्य इधर उधर नहीं फैलता है उसी प्रकार ध्यान से नियन्त्रित हुई इन्द्रियाँ और अन्तःकरण की वृत्तियां बाहर की ओर प्रसृत नहीं होती, अर्थात् इन्द्रभूति नियन्त्रित चित्तवृत्तिवाले थे। सू०७॥ "त एणं से भगवं गोयमे " इत्यादि । (तए णं) इसके बाद (जायसड़े) जातश्रद्धावाले (जायसंसए) जातसंशय वाले (जायकोऊहल्ले ) जातकौतूहलवाले (उप्पण्णसडे) ५ न. ५४ती. “ ध्यानकोष्ठोपगतः" ५४ मे मतावे छ ?-२ मा રહેલું અનાજ આમ તેમ ફેલાતું નથી, એ જ પ્રમાણે ધ્યાનથી નિયંત્રિત ઈન્દ્રિ અને અંતઃકરણની વૃત્તિ બહારની તરફ દેરાતી ન હતી. એટલે કેઇન્દ્રભૂતિ नियत्रितचित्तवृत्तिा उता. (सू. ७) 'तए णं से भगवं गोयमे' इत्यादि । (तए णं) त्या२ ५छी (जायसडढे) तत श्रद्धावणा, (जायसंसए) तसशया (जायकोऊहल्ले) भनामांतू त्पन्न थथुछ तेवा, (उप्पण्णसड्ढे) त्पन्न श्रद्धावा. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧
SR No.006315
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages879
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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