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समवायाङ्गसूत्रे
गडा) अन्तकृतः-कर्मों का अन्त करने वाले (मुणिबरुत्तमा) मुनिवरोत्तमाःजितने मुनिवरोत्तम ( तमरओधविप्पमुक्का) तमरजओघविषमुक्ताः -और अज्ञान रूपी कर्म रज से रहित होते हुए (सिद्धिपहमणुत्तरं च-पत्ता) सिद्धिपथं अनुत्तर च प्राप्ता-अनुत्तर-पुनरागमनरहित-मुक्ति मार्ग को प्राप्त हुए हैं बे सब यहां वर्णित हुए हैं। (एए अण्णे य एवमाइया-भावा मूलपढमाणुओगे कहिया आघविजंति) एते अन्ये च एवमादिकाः भावाः मूलप्रथमानुयोगे कथिता आख्यायन्ते ६-तथा इन विषयों के अतिरिक्त जो इन्हीं विषयों जैसे और दूसरे विषय हैं वे भी इस मूलप्रथमानुयोग में सामान्य विशेषरूप से वर्णित किये गये हैं। (पण्णविजंति) प्रज्ञापित हुए हैं, (प्ररूविज्जंति) प्ररूपित हुए हैं (दसिज्जति) उपमान उपमेय भावादि द्वारा स्पष्ट किये गये हैं। (निदसिज्जंति) बार २ भव्यजनों के कल्याण की भावना से अथवा अन्य जनों की अनुकंपा से कथित किये-गये हैं। (उव. दसिज्जति) उपनय निगमनों से अथवा समस्तनयों के अभिप्राय से निःशंकविना किसी संदेह के-शिष्यजनों की बुद्धि में स्थापित किये हैं। (सेत्तं मूल पढमाणुओगे) स एष मूलप्रथमानुयोगः-इस प्रकार से यह मूल प्रथमानुयोग का स्वरूप है । छेहन रीन (अंतगडा) अन्तकृतः- भनि। मत ४२ना। (मुणिवरुत्तमा) मुनिवरोत्तमा--२८॥ भुनियरोत्तमी, (तमरओघविप्पसुका) तमरजओघविप्रमुक्ताः -मशान३पी ४२४थी २डित मनीन (सिद्धिपहमणुत्तरं च पत्ता) सिद्धि पथं अनुत्तरं च प्राप्ता- मनुत्तर-पुनरागमन २हित-भुतिभाग ने पाया छे, ते मधानु तमा न ४युछे (एए अण्णे य एवमाइया भावा मूलपढमाणुओगे कहिया आघविजंति) तथा मा विषय सिवायना मीon विषये। मा विषयो જેવા છે તેમનું આ મૂલપ્રથમાનુગમાં સામાન્ય રીતે તથા વિશેષ પ્રકારે વર્ણન ४२वामा मयु छ, (पण्णबिज्जति) प्रज्ञापना २७ छ,(मरूविज्जति) ५३५५। छ, (दंसिज्जति) S५मान उपमेय मा । २५टी४२९५ ४यु छे, (निदंसिज्जंति) ભવ્યજનોના કલ્યાણને માટે તથા અન્ય જનો પ્રત્યેની અનુકંપાથી વારંવાર તેમનું ४थन युछे, (उवदंसिज्जति) उपनय निगमनानी माथी अथवा समस्त નેના અભિપ્રાયથી નિઃશંકપણે-કોઈપણ પ્રકારના સંદેહને સ્થાન ન રહે તેવી शत-शिष्याने सभावामां आवे छे, (से तं मूलपढमाणुओगो) स एषः मूलप्रथमानुयोगः भूतप्रयमानुयोगनु ०५२।त नु २१३५ छ.
શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર