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________________ भावबोधिनी टीका. एकादशाङ्गस्वरूपनिरूपणम् लाभम्-बोधिलाभ को प्राप्त करते हैं वह विषय कहा गया है। (जह य) यथा च-जिस प्रकार से (परीत्ती करेंति) परीत कुर्वन्ति-जैसे२ संसार को अल्प करते हैं वह विषय कहा गया है (संसारसागरमिण) संसार सागरमिमंयह संसारसागर कैसा है (नरनरयतिरियसुरगमणविउलपरियारइ. भयविसायसोगमिच्छत्तसेलसकड) नरनरकतिर्यक सुरगमनविपुलपरिवर्ता रतिभयविषादशोकमिथ्यात्वशैलसंकट-नर, नरक, तिथंच एवं देवगति में जो जीवों का परिभ्रमण होता रहता है वही इस संसाररूप सागर में विशाल जल जन्तुओं का परिभ्रमण है। समुद्र में बडे बडे पवेत डूवे रहते हैं अतः उनसे वह बहुत भारी विकट होता है इसी तरह इस संसार में अरति, भय, विषाद, शोक एवं मिथ्यात्व भरे पडे हैं अतः ये ही पर्वत जैसे है उनसे यह संसार विकट बना हुआ है (अन्नाणतमंघयारं) अज्ञानतमोन्धकार-समुद्र गाढ अंधकार से आच्छादित रहता है-इसी तरह यह संसार भी अज्ञानरूप गाढ अंधकार से युक्त बना हुआ है। (चिक्विल्ल सुदुत्तारं) कर्दमसुदुस्तार-समुद्र कदम के संबंध से दुस्तर रहता है इसी प्रकार यह संसार भी विष की धन की स्वजन की आशा तृष्णारूपी कर्दम से युयक्त होने के कारण दुस्तर बना हुआ है। (जरामरणजोणि संखुभियचक्क (निवत्तेति बोहिलाह) बोधिलाभं निर्वतयन्ति-मापिसामने प्राप्त 3रे छे, ते विषयनु ४थन ४२रायु छे. (जह य) यथा च-मने ते वी ते (परित्तीकरेंति) परीतकुर्वन्ति-सस २ने २५८५ ४२ छ-मेट 3 वी शते २il ससार सा२ने सही पा२ ४२ छ-तेनु वएन यु छे. (संसारसागरमिणं) संसारसागरमिमं-या संसार को छ ? (नरनरयतिरियसुरगमणविउलपरियट्ट अरइभयविसायसोगमिच्छित्तसेलसंकडं) नरनरकतिर्यकू सुरगमनविपुलपरिवर्तीरतिभयविषादशोकमिथ्यात्वशैलसंकटं--न२, २४, तिय य भने દેવગતિમાં જીવનું જે પરિભ્રમણ થયા કરે છે એ જ આ સંસારરૂપ સાગરમાં વિશાળ જળજન્તુઓનું પરિભ્રમણ છે. સમુદ્રમાં મોટા મોટા પર્વતે પાણીની સપાટી નીચે ડૂબેલા હોય છે, તેમને લીધે તે ઘણો વિકટ મનાય છે. એ જ પ્રમાણે સંસારમાં અરતિ, ભય, વિષાદ, શેક અને મિથ્યાત્વ ભરેલા છે, તેથી તેઓ જ ५वत व पाथी मा ससार ५९ qिxe मन छ. (अन्नाणतमंधयारं) अज्ञानतमोन्धकारं-2वी रीते समुद्र 6 माथी छपायेटी २९ छ, मे २४ प्रमाणे मा संसार ५५ अज्ञान३५ ॥ढ माथी छपाये छ. (चिक्खिल्लसुदत्तारं) कर्दमसुदस्तारं-६ भने १२ समुद्र हुस्तर खाय छे. २१ प्रमाणे मा સંસાર પણ વિષયની, ધનની અને સ્વજનોની આશાતૃષ્ણારૂપી કર્દમથી દુસ્તર શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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