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समवायाङ्गसूत्रे सूत्रकार पुण्यप्रकृतियों का सुखरूप विपाक होता है उसे प्रदर्शित करते हैं-(एत्ताय)इतश्च-दुःखविपाक के बाद जो(सुहविवागेसु णं)सुखविपाकेषु खलु सुखविपाक नामक द्वितीय श्रुतस्कंध में (सीलसंजमणियमगुणतवोवहाणेसु) शीलसंयमनियमगुणतपोपधानेषु-शील-चित्तसमाधि अथवा ब्रह्मचर्य, संयमसावद्यविरतिरूप सत्तरह प्रकार का संयम, अभिग्रह विशेष रूप नियम, गुण-मूलगुण एवं उत्तरगुण तप-उग्रतपस्या करना, इन उक्त गुणों से युक्त (सुविहिएम साहूसु) सुविहितेषु साधुषु-तप, संयम के आराधक मुनियों को (अणुकंपासयप्प-ओगतिकालमइविसुद्धभत्तपाणाई) अनुकम्पा शयप्रयोगत्रिकालमतिविशुद्धभक्तपानानि-दयायुक्त चित्त के प्रयोग से तथा त्रिकालमति से अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान कालिक सुपात्रादि के लिये दानदेने की बुद्धि से विशुद्ध पान को, जो कि (पाओगसुद्धाई) प्रयोग से शुद्ध-निर्दोष है, (हियसुहनीसेसतिवपरिणामनिच्छियमई) हितसुखनिःश्रेयसतीत्र-परिणामनिश्चितमतयः-हित सुख और निःश्रेयस के प्रकृष्टपरिणामवाली निश्चित मति से युक्त भव्यजन (पययमणसा) प्रयतमनसा त्रैकालिक विशुद्ध भावयुक्त मन से (पयच्छिऊणं)प्रदाय-देकर[जह य यथा च-जैसे [निवत्तेति]निर्वतयन्ति-निष्पादित करते हैं [बोहिलाहं]बोधिછે હવે સૂત્રકાર પુણ્યપ્રકૃતિને જે સુખરૂપ વિપાક (ફળ) પ્રાપ્ત થાય છે તે प्रगट रे छे-(एत्तो य) इतश्च-दुःविाना मध्ययन पछीना(मुहविवागेसु ण) सुखविपाकेषु खलु-सुविधा नामना मी श्रुत२४ मा (सीलसंजमणि यमगुणतवोवहाणेसु) शीलसंयमनियमगुणतपोपधानेषु-शीत--यित्तसमाधि अथवा ब्रह्मय, संयम-सावध-विति३५ सत्तर प्र॥२ना सयम, अभिपिशेष. રૂ૫ નિયમ, -મૂળગુણ અને ઉત્તરગુણ અને ઉગ્ર તપસ્યાનું આરાધન, એ गुथी युत (सुविहिएमु साहूसु) सुविहितेषु साधुषु-तप, संयमना मारा५४ भुनियाने ( अणुकंपासयप्पओगतिकालमइविसुद्धभत्तपाणा) अनुकम्पाशयप्रयोगत्रिकालमतिविशुद्धभक्तपानानि--ध्यायुत वित्तना प्रयोगथी तथा ત્રિકાળમતિથી એટલે કે ભૂત, ભવિષ્ય અને વર્તમાનકાળમાં સુપાત્ર આદિને દાન
पानी छाथी विशुद्ध माड २पाए २ (पाओगसुद्धाई) प्रयोगथी शुद्धनिषि छ, (हियसुहनीसेसतिव्वपरिणामनिच्छियमई ) हितसुखनिःश्रेयस तीव्रपरिणामनिश्चितमतयः-मने से हित, सुप. मने निश्रेयसना प्रष्ट परिणा. भवाणी निश्चित भतिथी युत व्यसना, (पययमनसा) प्रयतमनसा-विsults. विशुद्ध सापयुत भनथी (पयच्छिऊणं) प्रदाय-मापीने (जय) यथा २ रीते
શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર