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समवायाङ्गसूत्रे अनुचर्य-श्रुत चारित्र धर्म को सेवन करके (आराहियणाणदंसणचरित जोगा) आराधितज्ञानदर्शनवारित्रयोगा:-ज्ञानदर्शन-चारित्र को मन वचन काया से आराधन करने वाले (जिणवयणमणुगयमहिया) जिनवचनमनुगतमहिताः-जिनागम के अनुसार उपदेश देने वाले(जिणवराण जिनवरानां जिनवरों का (हिययेण)हृदयेन-मनसे (अणुणेत्ता) अनुनीय-ध्यान करके (जे य)ये च-जहां पर (जाहिं) यत्र-जितने (जतियाणि) यावन्ति-जितने(भत्ताणि) भक्तानि-भक्तों का (छेयइता) छेदयित्वा-अनशन द्वारा छेदन करके (समाहिं लथूण य) समाधि लब्ध्वा च-समाधि को प्राप्त करके (उतमज्झाणजोगजुत्ता) उतमध्यान-योगयुना-उत्कृष्ट ध्यानयोग में तत्पर होते हुए काल धर्म प्राप्त करके (मुनिवरोतमा) मुनिवरोतमाः-परमश्रेष्ठ मुनिजन (जह) यथा (अणुत्तरेसु) अनुत्तरेषु-अनुतर विमानों में (उववन्ना) उत्पन्न हुए हैं (तत्थ) तत्र-उन अनुतर विमानों में वे (जह) यथा-जैसे (अणुत्तरं) अनुतरंअर्थात् सर्वोत्कृष्ट (विसयसोक्ख) विषयसौख्यं-देवलोक संबंधी सुखों को (पावंति) प्राप्नुवन्ति-प्राप्त करते हैं यह सब विषय इस अंग में कहा गया है (तओ य चुया) ततश्च च्युताः उन अनुतर विमानों से चव कर (कमेण) क्रमेण-क्रम से (संजया) संयत होकर के (जहा य अंतकिरियं काहिति) चर्य-श्रुतयारि धनु सेवन शने ( आराहियणाणदंसणचरित्तजोगा )
आराधितज्ञानदर्शनचारित्रयोगाः---शान, शन, यात्रिनु भन, पयन मने याथी माराधन ४२नारा, (जिणवयणमणुगयमहिया) जिनवचनमनुगतमहिताजिनाम प्रमाणे उपहेश ना२।, (जिणवराणं) जिनवराना-नव।नु (हिययेण) हृदयेन-मत:४२४थी (अणुणेत्ता) अनुनीय-प्यान धरीने (जेय ये च-यां (जहिं) यत्र-२८वा (जत्तियाणि) यावन्ति-२८मा(भत्ताणि)भक्तानि-मतानु
र्भानु (छेयइत्ता) छेदयित्वा-मनशन द्वारा छेदन ४शने, (उत्तमज्झाणजोगजुत्ती ) उत्तमध्यानयोगयुक्ता-कृष्ट शानयोगमा लीन थने ॥ धर्म पामीन(मुनिवरोत्तमा) मुनिवरोत्तमाः-५२म श्रेष्ठ भुनियन (जह) के शते (अणुत्तरेसु) अनुत्तरेपु-मनुत्तर विमानामा (उववन्ना) उत्पन्नाः-पन्न थयां छे. (तत्थ)तत्र-तथा तेथे २४ मनुत्तर विमानमा (जह) i (अणुत्तरं) अनुत्तरंअनुपम (विसयसोक्खे] विषयसौख्यं तनi सुभाने (पावंति) प्राप्नुवन्तिभारत ४३ छ, ते मया विषयानु २L ARi qgन यु छे. (तओ य चुया) ततश्च च्युताः-तया ते मनुत्तर विभानामाथी २यवान (कमेण) क्रमेण-मशः (संजया) संयता-सयत ने ( जहा य अंतकिरियं काहिंति ) यथा
શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર