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________________ भावबोधिनी टीका. नवनवतितमं समवायनिरूपणम् ६०७ 'उड्डूं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन ‘पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः। 'नंदणवणस्स' नन्दनवनस्य खलु 'पुरस्थिमिल्लायो' चरमंताओ' पौरस्त्याचरमान्तात् 'पचत्थिमिल्ले चरमंते' पाश्चात्यश्वरमान्तो योऽस्ति, 'एस णं' एष खलु 'नवनउइ जोयणसयाई' नवनवति योजनशतानि 'अबाहाए' अबाधया 'अंतरे' अन्तरे-दूरे ‘पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः । अयं भावः-मूले मेरुपर्वतविष्कम्भो (विस्तारो) दशसहस्रयोजनानि। मूलतः पञ्चशतयोजनोपरिस्थितनन्दनवनस्थाने बाह्यो गिरिविष्कम्भश्चतुष्पञ्चाशधिकनवनव. तिशतयोजनपरिमितो योजनस्यैकादशभागेषु षड्भागपरिमित(९९५४ ६/११) श्वास्ति । तथा नन्दनवनाभ्यन्तरमेरुविष्कम्भः-चतुष्पश्चाशदधिकैकोननवतिशतयोजनप्रमाणो योजनस्यैकादशभागेषु षड्भागप्रमाण(८९५४ ६/११)श्वास्ति । नन्दनवनविष्कम्भस्तु पञ्चशतयोजनप्रमाणः। अत्र आभ्यन्तरगिरिविष्कम्भप्रमाणस्य, तथा नन्दनवनस्य पूर्व विष्कम्भः पञ्चशतयोजनानि, पश्चिम विष्कम्भोऽपि तावानेव, इति दशशतयोजनात्मकस्य नन्दनवनपूर्वपश्चिमविष्कम्भप्रमाणस्य च भाग है वह व्यवधान की अपेक्षा ९९नन्नानवे हजार योजन दूर है। इसका भाव इस प्रकार से है-मेरुपर्वत का विष्कंभ मूल में दशहजार योजन का है। मूल से लेकर पांच सौ ५००योजन ऊपर नंदनवन है। वहां पर्वत का बाह्य विस्तार नौ हजार नौ सौ चौपन योजन और एक योजन का ग्यारिया छह भाग का ९९५४ ६/११ है। तथा नंदनवन के भीतर मेरु काविस्तार५४चौपन अधिक८९नवासीसौयोजन तथा योजन के ग्यारह भागों में से६छह भाग प्रमाण है। अर्थात् पाठ हजार नौसौ चौपन और एक योजन का ग्यारिया छह भाग प्रमाण८९५४ ६/११है।और नंदनवन का विस्तार ५०० पांचसौ सौ योजन प्रमाण है। इस तरह इस आभ्यन्तर प्रमाण में-अर्थात् नंदनवन के भीतर रहे हुए मेरु के ८९५४ ६/११ योजनात्मक प्रमाण में-नंदन के पूर्वविप्कंभ पांच सौ ५०० योजन का और पश्चिमविष्कंभ पांच सौ ५०० योजन को-क्यों कि नंदनवन का पश्चिमविष्कंभ भी ५०० योजन प्रमाण है-इस तरह एक हजार १००० योजછે. તેનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે–મેરૂ પર્વતને વિશ્કેભ મૂળમાં ૧૦૦૦૦ દસ હજાર એજનને છે. મૂળથી ૫૦૦ પાંચસે જન પર નંદનવન છે. ત્યાં પર્વતનો બાહ્ય વિસ્તાર ૯૯૫૪ ૬/૧૧ જનને છે. તથા નંદનવનની અંદર મેરૂને વિસ્તાર ૮૯૫૪ ૬/૧૧ યોજનાને છે. અને નંદનવનને વિસ્તાર પ૦૦ પાંચસો જન છે. આ પ્રમાણે આભ્યન્તર પ્રમાણમાં–એટલે કે નંદનવનની અંદર રહેલ મેરૂના ૮૫૪ ૬/૧૧ એજનના પ્રમાણમાં–નંદનવનને ૫૦૦ એજનને પૂર્વવિકુંભ અને ૫૦૦ પાંચસે લેજનને પશ્ચિમવિષ્કભ ઉમેરવાથી શાસ્ત્રોકત શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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