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________________ भावबोधिनी टीका. सप्तदशसमवाये जाचारणादीनां गत्यादिनिरूपणम् २२५ ज्ञानरहितस्तस्य मरणम् । ‘वेहायसमरणे' वैहायसमरणम्, विहायसि भवं वैहायसम्, तच्च तन्मरणं च वैहायसमरणम् | अयं भावः-वृक्षस्य शाखायामन्यत्र चोर्ध्वप्रदेशे स्वशरीरमाबध्य यो म्रियते तस्य मरणं वैहायसमरणमुच्यते । 'गिद्धपिट्ठमरणे' गृहस्पृष्टमरणम् गृढैरुपलक्षणत्वान्मांसलुब्धकश्रृगालादिस्पृष्टस्य विदारितस्य यन्मरणं तद गृद्धस्पृष्टमरणम् । अथवा गृद्धपष्टमरण मितिच्छाया, गृद्धानां भक्ष्य पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादिकं च यस्मिन् मरणे तन्मरणं गृद्धपृष्ठप्तरणम् । कश्चिन्मदासत्त्वः प्राणी गजोष्ट्रादिमहाकायप्राणिशरीरमध्ये प्रविश्य स्वमांस गृद्धादिभिर्भक्षयित्वा यन्म्रियते तस्य मरणं, 'गिद्धपिट्ठमरणं' उच्यते । “भत्तपचक्खाणमरणे' भक्तपत्याख्यानमरणम्, भक्तस्य-भोजनस्य यावज्जीवं प्रत्याख्यानं छद्मस्थमरण-केवलज्ञान से रहित जीव का जो मरण होता है उसका नाम छद्मस्थमरण है ११। केवलिमरण-केवलज्ञान से युक्त हुए जीव का जो मरण होता है वह केवलि मरण है १२। वैहायसमरण-वृक्ष की शाखा पर अथवा किसी दूसरे ऊँचे प्रदेश में अपने शरीर को बंधकर-फाँसी लगाकर जो जीव का मरण होता है वह वैहायसमरण है १३। गृद्धस्पृष्टमरण-गृद्ध आदि मांस लुब्ध जीवों के द्वारा भक्षित हो जाने पर जो मरण होता है उसका नाम गृद्धस्पृष्टमरण है अथवा 'गिद्धपिट्ठमरण' पदकी 'गृद्धपृष्ठमरण ' ऐसी भी संस्कृत छाया होती है । इसका भाव ऐसा है कि जिस मरण में गृद्धों द्वारा भक्ष्य जो पृष्ठ उदर आदि कारण हों। कोई महासत्त्वशाली प्राणी गज, उष्ट्र आदि महाकायवाले प्राणियों के शरीर में प्रविष्ट हो जावे और अपने मांस को गृद्ध आदिकों से खिलावेभक्षित करावे इस तरह से जो उसका मरण होवे तो वह गृद्धपृष्ठ नु भ२५५ थाय छ त छस्थम२६५ ४ छ. केवलि मरण-वज्ञानथी युत वनु भ२५ थाय छ तेने सिभ२६५ ४ छ. (१३) वैहायसमरणવૃક્ષની શાખાપર કે બીજી કઈ ઉંચી જગ્યાએ પોતાના શરીરને બાંધીને-ફાંસો ખાઈને k२ भ२९५ थाय छे. तेन वैडायसम२४ ४. (१४) गृद्धस्पष्टमरण गीच माहि मांस લાલચુ જેના દ્વારા ભક્ષિત થવાને કારણે જે મરણ થાય છે. તેનું નામ ગૃદ્ધસ્કૃષ્ટ भ२८५ छ २मथवा गिद्धपिट्टमरण पहनी गृद्धपृष्ट मरण यी ५ संस्कृत छाया थाय છે. તેનો ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે–જે મરણમાં ગીધ દ્વારા ભઠ્ય પીઠ, પેટ આદિ કારણ રૂપ હોય એવું મરણ. કેઈ મહાસત્વશાળી પ્રાણી હાથી, ઉંટ આદિ મહાકાય પ્રાણીઓના શરીરમાં પ્રવેશ કરે પિતાના માંસને ગીધ આદિકોને ખવરાવે તેનું જે भ२९ थाय तेने द्धY०४ भ२९४ ४ छ. (१५) भक्तपत्याख्यानमरण रे भरमा શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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