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________________ भावबोधिनी टीका. षोडशसमवाये गाथाषोडशादीनां निरूपणम् २०९ सग्गपरिणा' उगसर्गपरिज्ञा-उपसर्गाणां संबन्धप्रामिः, प्राप्तानां च अधिस सहनम् यत्र प्रतिपाद्यते तदध्ययम् इति । 'इत्थीपरिणा' स्त्रीपरिज्ञा। स्त्रीपरिचयादिना मुनिः शीलात्स्खलति, स्खलितशीलश्च स्वपक्षपरपक्षकृततिरस्कारादि विडम्बनां कर्मबन्धं चाप्नोतीति प्रतिपाद्यते यत्र तदध्ययनं स्त्री परिज्ञा । 'णिरयविभत्ती' निरयविभक्तिः निरयाणां नरकाणां विभक्तिः विभागो भिन्न भिन्नतया स्वरूपनिरूपणं यत्र तदध्ययनं निरयविभक्तिनामकम् । 'महावीरथुई' महावीरस्तुतिः यत्र भगवतो महावीरस्य स्तुतिः संग्रथिता, तदध्ययनं 'महावीरस्तुतिः' इति । 'कुसील परिभासिए' कुशीलपरिभाषितम्, कुशीलाः परतीथिकाः सर्गपरिज्ञा' इस अध्ययन में उपसर्गों के संबंध की प्राप्ति और उनके सहन करने का कथन है इमलिये इस संबंध के कारण इस अध्ययन का नाम भी 'उपसर्गपरिज्ञा' हो गया है। ४ स्त्रीपरिज्ञा' इस अध्ययन में यह प्रकट किया गया है कि स्त्रीयों के साथ के परिचय से मुनि शोल से स्खलित हो जाता है और शील से स्खलित होने पर फिर वह अपने पक्ष और परपक्ष के साधुओं द्वारा किये गये तिरस्कार का पात्र हो जाता है । उनकी बडी विडम्बना होती है। कर्मबंधन से वह जकड जाता है। इस संबंध को लेकर इस अध्ययन का नाम भी 'स्त्री परिज्ञा' हो गया है। ५ निरयविभक्ति' इस अध्ययन में नरकों का स्वरूप भिन्न २ रूप से निरूपित किया गया है, इसलिये इस अध्ययन का नाम 'निरयविभक्ति' हुआ हैं। ६ महावीर स्तुति' इस अध्ययन में महावीर प्रभु की स्तुतिओं का ग्रन्थन किया है इसलिये इसका नाम 'महावीरस्तुति' ऐसा किया गया है। ७'कुशीलपरिभाषित' इस अध्ययन में कुशील-अन्यतीर्थिकों का और भने तमने सडन ४२वानु न बाथी मा मध्ययननु नाम उपसर्गपरिज्ञा ५.युछे. (४) स्त्रीपरिज्ञा २मा अध्ययनमा मे त प्रगट री छे खीनी साथे પરિચય કરવાથી મુનિ શીલથી ખલિત થઈ જાય છે. અને શીલથી ખલિત થવાને લીધે તે પિતાના પક્ષના તથા અન્ય પક્ષના સાધુએ ના તિરસ્કારને પાત્ર બને છે. તેની ભારે વિડમ્બના થાય છે. તે કર્મબંધનમા જકડાઈ જાય છે તે કારણે આ અધ્યयन नाम "स्त्री परिज्ञा" यु छे. (५) “निरयविभक्ति" २ अध्ययनमा न२४ानु स्व३५ भिन्न भिन्न ३ मतान्यु छ तेथी अध्ययननु नाम 'निरयविभक्ति' ५ऽयु छे. (६) 'महावीर स्तुति मा अध्ययनमा महावीर प्रभुनी स्तु. तिमार्नु अन्यन ४२पामा माव्यु छ, तथा तेनु नाम 'महावीर स्तुति' सभ्यु छे. (७) 'कुशीलपरिभाषित' मा ५६ययनमा मुशी--- ताथ भानु म पाव શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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