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________________ १०६६ समवायाङ्गसूत्रे सुरिंदनागिंदा सीयंवहंति) असुरेन्द्रसुरेन्द्रनागेन्द्राः शिविका वहन्ति-इन शिविकाओं को असुरेन्द्र, सुरेन्द्र और नागेन्द्र उठाते हैं। (सुरअसुरवंदियाणं जिणिदाणं चलचवलकुंडलधरा सच्छंदविउवियाभरणधारी) सुरासुर वन्दितानां जिनेन्द्राणां चलचपलकुण्डलधराः स्वच्छन्दविकुर्विताभरणधारिणः-सुर और असुर से वंदित उन जिनेन्द्रों की शिबिका को चलचपल कुंडलधारी देव कि जो अपनी इच्छानुसार विकुर्वित आभूषणों को धारण करने वाले होते है पूर्व की तरफ आगे१ वहन करते हैं 'उठाते) । ( नागा पुणो दाहिणम्मि पासम्मि ) नागकुमारा देवाः पुनर्दक्षिणे पार्श्व नागकुनारदेव दक्षिणपार्श्व में ( पच्छिमेण असुरा) पश्चिमेन असुराः-असुरकुमारा पश्चिमपाव में (गरुला पुण उत्तरे-पासे गरूडाः पुनः उत्तरे पार्थ और उत्तर पार्थ में सुपर्णकुमार नाम के भवनपति देव उस शिबिका को वहन करते हैं। अब सूत्रकार तीर्थंकरों के दीक्षा स्थान का वर्णन करते हैं-(उसभो य विणीयाए) ऋषभश्च विनीतायां-ऋषभ देव ने विनीतानगरी में दीक्षा धारण की है (अरिहदरणेमीबारवईए) अरिष्टनेमिःद्वारावत्याम्-अरिष्टनेमि-भगवान ने द्वारवती में दीक्षा धारण की है (अवसेसा तित्थयरा निक्खत्ता जम्मभूमिसु) अवशेषास्तीर्थंकराः सीयवहंति) असुरेन्द्र सुरेन्द्र नागेन्द्र शिविकां वहन्ति-ते शिािने असुरेन्द्र, सुरेन्द्र भने नागेन्द्र पाउ छे. (सुरअसुरवंदियाणं जिणिदाणं चलचवल कुंड. लधरा सच्छंदविउवियाभरणधारी) सुरासुरवन्दितानां जिनेन्द्राणां चलचपल कुण्डलधराः स्वच्छन्दविकुर्विताभरणधारिणः-सु२ भने असुथी ते જિનેન્દ્રોની શિબિકાને ચલચપલ (ડોલાયમાન) કુંડલધારી દે કે જે પિતાની ઈચ્છા પ્રમાણે વિકૃવિત આભૂષણને ધારણ કરતા હોય છે, પૂર્વ તરફથી વહન *शने ने मा11 याले छे. (नागा पुणो दाहिणम्मि पासम्मि नागकुमार देवाः पुनर्दक्षिणे पार्श्व-नामा२४३ सिमानुथी, (पच्छिमेण असुरा) पश्चिमेन असुराः- मसुरभारहे। पश्चिम त२३थी, (गरुला पुण उत्तरे पासे) गरुडाः पुनः उत्तरे पार्श्व-मने उत्तर त२३थी सुपणमा२ नामना मनपति દે તે શિબિકાને ઉપાડે છે. હવે સૂત્રકાર તીર્થંકરનાં દીક્ષાસ્થાનનું વર્ણન કરે છે. (उसभो य विणीयाए) ऋषभश्च विनीतायां-अपनवे विनीता नगरीमा alal सीधी ती. (अरिठ्ठवरणेमीबारवईए) अरिष्टनेमिः द्वारावत्याम्-मरिटभि भगवान रातामi lal Abil२ ४३॥ ती. (अवसेसा तित्थयरानिक्खत्ता जम्मभूमिसु) अवशेषास्तीर्थंकराः निष्क्रान्ता जन्मभूमिषु-मslil मावीस શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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