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________________ २४६ स्थानाङ्गसूत्रे लेपानां पिहितानाम् आच्छादितानाम् , मुद्रितानाम्-मृत्तिकादिमुद्रावतां, लाञ्छि. तानाम् रेखादिभिः कृतलाञ्छनानां कियन्तं कालं योनिः उत्पादशक्तिः सन्ति. घडते ? कोष्ठागारादिरक्षितानां कलमसरादिदश विधधान्यानां योनिः कियत्का. लावधि तिष्ठति ! इति प्रश्नाशयः । भगवानाह-हे गौतम ! एतेषां धान्यानां योनिः जघन्येन अन्तर्मुह तम् , उत्कर्षेण तु पश्च संवत्सरान् तिष्ठति ततः परम् तदनन्तरं योनिः पम्लायति वर्णादिना हीयते, यावच्छब्दात् ततः परं योनिः विध्वंसते तश्यति, ततः परं चीनम् प्रवीनं भवति-उप्तमपि तत् न प्ररोहति । गया हो ऐसी जगहमें रखे गये हों चाहे अब लिप्त हों-ऐसे पात्रमें भरकर रखे गये हों कि जिसका द्वार पहिले ढकनसे ढांक दिया गया हो और बादमें गोबर आदिसे छाब कर दिया गया हो चाहे लिप्त हों-सामान्य रूपसे ढककर रखे हुए हों, चाहे मुद्रित हों-मिट्टी आदिका लेप कर रखे गये हों चाहे लाञ्छित हों-रेखा आदि द्वारा जो चिन्हित कर दिये गये हों कितने काल तक उत्पादन शक्ति रहती है ? अर्थात् कोष्ठागार आदिमें भर कर रखे गये इन कल मसूर आदि दश प्रका. रके धान्योंकी अङ्कुरोत्पादन शक्ति कितने समय तक रहती है, ऐसा प्रश्नाशय है-इस पर भगवान कहते हैं-हे गौतम !इन १० प्रकारके धान्योंकी अङ्करोत्पादन शक्ति जघन्यसे एक अन्तर्मुहूर्तकीहै, और उत्कृष्टसे पांच वर्ष तककी है, इसके बाद उनकी वह अङ्कुरोत्पादन शक्ति वर्णादि द्वारा कमजोर हो जाती है फिर वे अङ्कुरोत्पादन करनेमें शक्ति सम्पन्न नहीं रहते हैं। यही बात " बीजं अपीजं भवति" इस पाठ द्वारा प्रकट की गई है अर्थात् वह केवल देखने मेंही बीज लगता है, पर वास्तव में કે લેપ કર્યા વગરના ઢાંકણાવાળા વાસણમાં રાખેલા, રેતી રાખ આદિમાં शमेशा पटा, मसूर, तस, भा. १३४, पास, ४थी, योगा, तुवेर, या આદિ ધાન્યની અંકુરોત્પાદન શક્તિ કેટલા કાળની કહી છે? મહાવીર પ્રભુને ઉત્તર–-હે ગૌતમ ! વટાણા આદિ આ ૧૦ પ્રકારના ધાન્યની અંકુત્પાદન શક્તિ ઓછામાં ઓછા એક અન્તર્મહતું પ્રમાણ કાળની અને અધિકમાં અધિક પ ચ વર્ષ સુધીની હોય છે. ત્યારબાદ તેની અંકપાદન શક્તિને ક્ષય થઈ જાય છે અને આખરે તેમની તે શક્તિ નષ્ટ થઈ જાય છે, એટલા કાળ બાદ તેઓ અંકુરે ત્પાદન કરવાની શકિતથી રહિત सनीय छ. मे पात सूरे “बोज अबीजं भवति" मा सूत्रपात દ્વારા પ્રકટ કરી છે. એટલે કે પાંચ વર્ષ બાદ તેઓ બીજ જેવા દેખાતાં શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્ર : ૦૪
SR No.006312
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages775
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size42 MB
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