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________________ स्थानानसूत्रे अनन्तरं जीवास्तिकाय उक्तः, तद्विशेषभूत पुरुषान् फलदृष्टान्त पूर्वकं निरूपयतिमूलम् - चत्तारि फला पणत्ता, तं जहा- आमे णाममेगे आममहुरे १, आमे णाममेगे पक्कमहुरे २, पक्के णाममेगे आममहुरे ३, पक्के णाममेगे पक्क महुरे ४ | एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - आमे णाममेगे आममहुरफलसमाणे १, आमे णामेगे पक्कमहुरफलसमाणे २, पक्के णाममेगे आममहुरफलसमाणे ३, पक्के णाममेगे पक्क महुरफलसमाणे ४ ॥ १६ ॥ 'छाया - चत्वारि फलानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - आमं नाम एकम् आममधुरम् १, आमं नाम एक पक्वमधुरम् २, पक्वं नाम एकम् आममधुरम् ३, पक्वं नाम एक पक्वमधुरम् ४। ४९० अस्तिकाय अरूपिकाय हैं, अरूपी होकर जो काय हैं बहुप्रदेशी हैं वे अरूपिकाय हैं, यहां पुद्गलास्तिकाय को जो नहीं लिया गया हैं उनका कारण उसका रूपी होना है पुद्गलास्तिकाय अरूपी नहीं होता है। जीवास्तिकाय को जो अरूपिकाय में गृहीत कर लिया है वह मूलरूप में उसका अरूपी होना है। धर्मास्तिकाय आदि ये सब अरूपी हैं। इसलिये इन् अस्तिकायों को अरूपीकाय में परिगणित किया गया है ॥ सु. १५ ॥ अब सूत्रकार उक्त जीवास्तिकाय के विशेषभूत पुरुषों का दृष्टान्त पूर्वक निरूपण करते हैं-" चत्तारि फूला पण्णत्ता " इत्यादि १६ सूत्रार्थ - फलचार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे- एक वह फल जो अपक्व होता हुवा आमका जैसा किञ्चित् मधुर होता है १ दूसरा यह जो अपक्व होता हुया पके फल का जैसा अत्यन्त मधुर होता है २ तीसरा वह जो पका हुवा होकर आम जैसा किश्चित् मधुर होता है-३ और चौथा वह फल હાવા છતાં જે ખડુપ્રદેશી છે, તેમને અરૂપીકાય કહે છે. એવા અરૂપીકાય ચાર उद्यां छे- (१) धर्मास्तिाय, (२) अधर्मास्तिडाय, (3) माशास्तिाय भने જીવાસ્તિકાય. અહીં પુદ્ગલાસ્તિકાયને અરૂપીકાય નહીં કહેવાનું કારણ એ છે કે તે રૂપી પદાથ' છે—અરૂપી નથી. જીવાસ્તિકાયને અરૂપીકાય કહેવાનું કારણુ એ છે કે મૂળરૂપે તે અરૂપી છે. ધર્માસ્તિકાય આદિ આ ચાર પદાર્થો અરૂ પી જ છે. તેથી આ આસ્તિકાયાને અરૂપીકાયમાં ગણવામાં આવ્યા છે. ! સૂ. ૧૫। હવે સૂત્રકાર પૂર્વોક્ત જીવાસ્તિકાયનું—વિશેષભૂત પુરુષાના દૃષ્ટાન્તપૂર્વક निश्णु रे छे - " चत्तरि फला पण्णत्ता " त्याहि સૂત્રાર્થ-ક્લાના નીચે પ્રમાણે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે—(૧) કાચુ' હાવા છતાં પણુ કેરીના જેવું સહેજ મધુરતાયુક્ત ફળ. (૨) કાચું હોવા છતાં પાકા ફળના શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્ર : ૦૨
SR No.006310
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages819
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size47 MB
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