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स्थानाङ्गसूत्रे उष्णो-दाहस्वभावः । स्निग्धः चिक्कणः संयोगे सति संयोगिनां बन्धकारणम् । रूक्षा=निः स्नेहः, संयोगे सत्यपि संयोगिनामबन्धकारणम् । कर्कशादिषु प्रत्येकमेकत्वं सामान्यविवक्षया बोध्यमिति ॥ मू०४९ ॥
इत्थं पुद्गलधर्माणामेकता मोक्ता । सम्प्रति पुद्गलसंयुक्तजीवानां येऽष्टादशपापस्थानरूपा अप्रशस्तधर्मास्तेषां प्रत्येकमेकत्व- एगे पाणाइवाए ' इत्यादिना 'दसणसल्ले ' इत्यन्तेन सन्दर्भण पोच्यते
__ मूलम्-एगे पाणाइवाए जाव एगे परिग्गहे । एगे कोहे जाव लोभे । एगे पेजे एगे दोसे जाव एगे परपरिवाए । एगा अरतिरती। एगे मायामोसे, एगे मिच्छादसणसल्ले ॥ सू०५० ॥
छाया- एकः प्राणातिपातो यावत् एकः परिग्रहः । एकः क्रोधो योवद् नाम लघु है स्तम्भन स्वभाव वाले स्पर्श का नाम शीत है दाहस्वभाव वाले स्वभाव का नाम उष्ण है जो स्पर्श चिकना होता है वह स्निग्ध स्पर्श है यह स्निग्ध स्पर्श संयोग के होने पर संयोगी पदार्थों के आपस में बन्ध होने में कारण होता है इन कर्कश आदि स्पर्शी में से प्रत्येक स्पर्श में सामान्य की अपेक्षा से ही एकता है ऐसा जानना चाहिये ॥ सू० ४९॥
इस प्रकारसे पुद्गलधर्मों में एकता कही । अब पुद्गल संयुक्त जीवोंके जो अठारह पापस्थानरूप अप्रशस्तधर्म हैं उनमें प्रत्येक में एकता " एगे पाणाइवाए" इत्यादि सूत्रद्वारा “मिच्छादंसणसल्ले" इस अन्तिम सूत्र तक के संदर्भ से कही जाती है
'एगे पाणाइवाए जाव एगे परिग्गहे ' इत्या० ॥ ५० ॥
मूलार्थ-प्राणातिपात एक है यावत् परिग्रह एक है क्रोध एक है દાહક સ્વભાવવાળા સ્પર્શને ઉષ્ણ સ્પર્શ કહે છે. સુંવાળા સ્પર્શને સ્નિગ્ધ સ્પર્શ કહે છે. આ સ્નિગ્ધ સ્પર્શને કારણે સંગી પદાર્થો પરસ્પરમાં બંધાય છે. આ કર્કશ આદિ પ્રત્યેક સ્પર્શમાં સામાન્યની અપેક્ષાએ એકત્વ છે, એમ સમજવું
આ પ્રમાણે મુદ્દલ ધર્મોમાં એકતાનું પ્રતિપાદન કરીને હવે સૂત્રકાર પુદ્રલ-સંયુક્ત જીના જે ૧૮ પાપસ્થાનકરૂપ અપ્રશસ્ત ધર્મ છે, તે પ્રત્યેકમાં सातार्नु प्रतिपाहन ४२५॥ निभित्ते " एगे पाणाइवाए" थी श३ ४शन “मिच्छदसणसल्ले ” पर्यन्तनां सूत्रानु नि३५ ४२ छ
" एगे पाणाइवाए जाव एगे परिग्गहे" त्याहि ॥ ५० ॥ સન્નાર્થ–પ્રાણાતિપાત એક છે, પરિગ્રહ એક છે, ક્રોધ એક છે, લેસ
શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્ર : ૦૧