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________________ स्थानाङ्गसूत्रे ___ अथवा-'पाडिक्कएणं सरीरएणं' इत्यस्य 'प्रत्येकके शरीरके' इतिच्छायापक्षे-प्रत्येकस्मिन् शरीरे वर्तमानो यो जीयः स एको भवतीत्यर्थः । अत्र णकारद्वयं वाक्यालंकारे ॥ मू० १७ ॥ बन्धमोक्षादय आत्मधर्मा इह पूर्वमुक्ताः । ततस्तदधिकारस्याऽत्र प्रस्तुतत्वादतः परम् " एगा जीवाणं" इत्यारभ्य 'एगे चरित्ते इत्यन्तैरष्टाविंशत्यारात्मधमान् निरूपयतिमूलम्-एगा जीवाणं अपरिआइत्ता विगुवणा ॥ सू० १८॥ छाया-एक जीयानाम् अपर्यादाय विकुर्वणा ॥ सू० १८ ॥ व्याख्या-'एगा' इत्यादिकएणं सरीरएणं" इस की छाया जप " प्रत्येक के शरीर के" ऐसी की जाती है तब इस पक्ष में प्रत्येक शरीर में वर्तमान जो जीव है वह एक है ऐसा अर्थ बोध होता है यहां दो जगह "गं" यह पद वाक्यालङ्कार में प्रयुक्त हैं ऐसा जानना चाहिये ॥सू०१७॥ बन्ध मोक्ष आदि ये सब आत्मधर्म है ऐसा यहां पहिले कहा जा चुका है अतः यही अधिकार यहां प्रस्तुत है इसलिये इससे आगे "एगा जीचाणां" यहां से लगाकर " एगे चरित्ते" यहां तक के २८ सूत्रों द्वारा सूत्रकार आत्मधर्मों की निरूपणा करते हैं। 'एगा जीवाणं अपरिआइत्ता विगुव्यणा' ॥१८॥ मूलार्थ-जीवों की वाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये विना विकुर्वणाचिक्रिया-एक है। ___ अथवा-" पडिक्कएणं सरीरएणं " तेनी छायाने "प्रत्येछना शरीना" આ પ્રમાણે કરવામાં આવે તે “પ્રત્યેક શરીરમાં વર્તમાન (રહેલે) જે જીવ छ, त छ," मेव। अथ नाथ थाय छे. मडी में याये “णं" ना પ્રયોગ વાક્યાલંકાર રૂપે થયે છે, એમ સમજવું. છે સૂ૦૧૭ | બન્ય, મેક્ષ આદિ ઉપર્યુક્ત બધાં તો આત્મધર્મ છે, એવું અહીં પહેલાં કહેવામાં આવી ચુકયું છે. એક અધિકાર હજી પણ ચાલી રહ્યો છે. तथी व "एगा जीवाणं" थी बने “ एगे चरित्ते " 20 सूत्र ५-तना ૨૮ સત્ર દ્વારા સૂત્રકાર આત્મધર્મોની જ પ્રરૂપણું કરે છે– “एगा जीवाणं अपरिआइना विगुव्यणा" ॥ १८ ॥ સૂત્રાર્થ-જીવોની બહાપુને ગ્રહણ કર્યા વિના થતી વિકૃણ (A ) मे छे. શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006309
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size42 MB
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