________________
समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १६ विधिनिषेधस्वरूपनिरूपणम् ५६७ यस्य स सममनाः सर्वत्र वासीचन्दन कल्प इत्यर्थः यथा चन्दनं छेदकस्य सुरक्षकस्य च समानं सुगन्धं वितरति तथाऽयं मुनिरपि सर्वत्र समानभावो भवतीति भावः२। 'भिक्खूत्ति वा' भिक्षुरिति वा, निरक्षभिक्षणशीलो भिक्षुः । अथवा-भिनत्ति विनाशयति, अष्टप्रकारकं कर्म यः स भिक्षुः। एवं भामुरगुणगणविशिष्टः साधुभिक्षुरिति वा वाच्यः३ । 'णिग्गंथेत्ति वा' निग्रंथ इति वा, बाह्याऽभ्यात ग्रंथाऽ भावात्-निर्ग्रन्थः ४ । तदेवमनन्तरपश्चदशाध्ययनोक्तार्थाऽनुष्ठायी, दान्तो, द्रविको की छाया 'सममनाः' भी होती है। प्राकृतभाषा होने के कारण यहां एक मकार का लोप हो गया है। तात्पर्य यह है कि वह शत्रुओं और मित्रों पर समान भाव रखता है। जैसे चन्दन अपने को छीलने बोले बसूला पर द्वेष नहीं करता, उसी प्रकार वह भी उपसर्गकर्ता पर रुष्ट या द्विष्ट नहीं होता। जैले चन्दन सब को समान भाव से सुगंध प्रदान करता है, उसी प्रकार यह मुनि भी सर्वत्र समभावी होता है। २ - वह मुनि 'भिक्षु' भी कहलाता है। जो निरवध भिक्षा ग्रहण करता है, वह भिक्षु कहलाता है। अथवा आठ प्रकार के कर्मों को भेदनेवाला भिक्षु कहा जाता है। एवं भासुर (देदीप्यमान) गुण गणों से युक्त साधु भिक्षु पद का वाच्य होता है। ३ ।।
वह मुनि 'निर्ग्रन्ध' भी कहा जाता है। जो बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित हो वह निर्ग्रन्थ है। ४
छाया 'सममनाः' से प्रभारी ५५ थाय छे. प्राकृत भाषा पाथी माडियां એકમકારનો લેપ થયેલ છે. તાત્પર્ય એ છે કે-તે શત્રુઓ અને મિત્ર પર સરખો ભાવ રાખે છે. જેમ ચંદન વૃક્ષ પિતાને છોલવાવાળા વાંસલા પર દ્વેષ કરતું નથી એજ પ્રમાણે તે ઉપસર્ગ-વિદ્મ કરનારા પર રોષવાળા અથવા શ્રેષ વાળા થતા નથી. જેમ ચંદન બધાને સમાન ભાવથી સુગંધ આપે છે, એજ પ્રમાણે આ મુનિ પણ સર્વત્ર સમાન ભાવવાળા હોય છે (૨)
तमुनि भिक्षु' ५५ उपाय छ, २ निरव मिक्षा ग्रहय रे छ, તે ભિક્ષુ કહેવાય છે. અથવા આઠ પ્રકારના કર્મોને ભેદવાવાળા ભિક્ષુ કહેવાય छ. से शत भासुर' हेहीप्यमान गुण साथी युत साधु भिक्षु' ५६ पाय हाय छे. (3)
તે મુનિ “નિગ્રન્થ” પણ કહેવાય છે, જે બાહ્યા–બહારના અને આભ્ય•त२-महरा परियडथी २हित य ते नियन्य छे. (४)
श्री सूत्रतांग सूत्र : 3