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________________ सूत्रकृताङ्गसूत्र सृष्टः त्यक्तः स्नानादिसंस्कारराहित्येन कायः कायममत्वं येन स व्युत्सृष्टकायः स्यक्तशरीरममत्वः 'त्ति' इति एतादृशः पूर्वोक्ताऽध्ययनार्थेषु दत्तचित्तो भवेत् 'से= सः 'माहणे ति वा' माहन इति वा प्रसस्थावरजीवान् 'माहण' इत्येवं कथनम्वृत्ति यस्याऽसौ माहन इति धा। अथवा-नवविध गुप्तियुक्तब्रह्मचर्यधारणात् ब्राह्मगा, अनन्तरोक्त गुणयुक्तत्वात् ब्राह्मगः इतिवाच्यः १ । 'समणेत्ति वा श्रमण इति वा, श्राम्यति द्वादशविधतपसि श्रमकरणादिति श्रमणः अथवा-'समणे' इत्यस्य, समनाः इतिच्छाया, तत्र मनसा दया मनसा सहितः समनाः दयाईमनोयुक्तत्वात् , यद्वासमणेति सममना इतिच्छाया माकृतत्वात्मकारलोपः, समः शत्रुमित्रेषु तुल्यं मनोअथवा राग द्वेष आदि समस्त मलों से रहित होने के कारण निर्मल स्वर्ण के समान शुद्ध द्रव्य स्वरूप। ___ स्नान आदि शारीरिक संस्कारों का त्याग जिसने कर दिया हो और जो शरीर की ममतो त्याग चुका हो, वह व्युत्सृष्टकाय' कहलाता है। जो द्रविक और व्युत्सृष्ट काय है तथा पूर्वोक्त अध्ययनों के अर्थके अनुसार मनोयोग पूर्वक प्रवृत्ति करता है, वह माहन अर्थात् 'मा हन' (बस स्थावर जीवों को मत मारो) ऐसी कथनी और करणी वाला होता है अथवा नौ वाडरूप गुप्तियों से युक्त ब्रह्मचर्य का धारक होने से ब्राह्मण कहलाता है ? वह 'श्रमण' भी कहा जाता है। 'समणे' अर्थात् श्रमण का अर्थ है-बारह प्रकार की तपश्चर्या में श्रम करने वाला । 'समणे' की संस्कृत छाया 'समनाः' भी होती है, इसका अर्थ है-दयायुक्त मन वाला अर्थात् प्राणी मात्र पर अनुकम्पा की भावना से युक्त । अथवा 'समणे' નાન વિગેરે શારીરિક-શરીર સંબંધી સંસ્કારને જેઓએ ત્યાગ કરી દીધું છે. અને જે શરીરની મમતાને ત્યાગ કરી ચૂક્યા હોય તેઓ બુસૂષ્ટ કાય” કહેવાય છે. જેમાં કવિક અને “બુસૂટકાય” હોય છે, તથા પૂર્વોક્ત અધ્યયનોના અર્થની અનુસાર માગ પૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરે છે. તે भाडन, अर्थात् 'मा हन' स भने स्था१२ वान न मारे। मेवा उथन અને કરણી વાળે હોય છે. અથવા નવ પ્રકારની “નવવાડ રૂ૫ ગુપ્તિથી યુક્ત બ્રહ્મચર્યને ધારણ કરવાનું હોવાથી બ્રાહ્મણ કહેવાય છે. (૧) त श्रमहा ५ उपाय छे. 'समणे' अर्थात् श्रमायुनी अथ-मार डा. २नी तपश्चर्यामा श्रम अनार के प्रमाणे छे. 'समणे' नी सस्त छया 'समनाः' એ પ્રમાણે પણ થાય છે. તેનો અર્થ દયા યુક્ત મનવાળે એ પ્રમાણે થાય छ. अर्थात् प्राणीमात्र ५२ अनुपानी मानाथी युत अथवा 'समणे' नी श्री सूत्रकृतांग सूत्र : 3
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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